लेकिन क्या मैं सोचता रह जाऊँगा - कविता - गोपाल मोहन मिश्र

रात में सूरज को तरसता हूँ,
दिन में धूप से तड़पता हूँ,
आख़िर क्या होगा मेरा...?
मै हूँ कहाँ इस यात्रा में...?
सोचता हूँ तो पाया!

मुझे
ना मंज़िल का पता है,
ना पहचान है,
ना रास्ते में हूँ,
ना सराय में,
मंज़िल भी सोचती होगी,
ये भी
अजीब नादान है!

खजूर की छाँव देख भी
ललचा जाता हूँ,
जबकि जानता हूँ मैं
थोड़ा आगे ही तो,
पीपल की घनी छाँव भी है!

राह छोड़
पगडंडियों
पर भटक जाता हूँ,
जबकि मैं
देख चुका हूँ पहले भी
कि,
इनका भी तो
ये राह ही
पड़ाव है!

ऐसा लगता है
जैसे मैं नींद में हूँ,
अभी मैं
सो रहा हूँ,
आँख भी खुलती है,
कई बार
खुली भी है,
अँधेरा देख
पता ही नहीं लगता कि,
भोर है या रात,
और मैं फिर सो जाता हूँ!

मैं सोचता हूँ,
इस बार
वो मुझे बताएगा नहीं
जगाएगा!
सही राह पर नहीं चलाएगा,
बल्कि
अपनी गोदी में उठाएगा,
झूठी हँसी नहीं,
सच्चे आँसू रुलाएगा...!

लेकिन क्या मैं सोचता रह जाऊँगा...?

गोपाल मोहन मिश्र - लहेरिया सराय, दरभंगा (बिहार)

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