संस्कृति - कविता - बृज उमराव

वैदिक संस्कृति के पोषक बन,
नैया के खेवनहार बनो।
श्रृष्टि श्रजन की धुरी हो तुम,
प्रकृति के पालनहार बनो।।

राष्ट्र धर्म का निज दृढ़ता से,
पालन अब करना होगा। 
वैदिक संस्कृति के शोषक को,
श्वान मौत मरना होगा।। 

आलम्बन हो प्रभु राम का,
शौर्य प्रबल ख़ुद का जागे।
जय भारत जय हिंद नांद संग,
चहुँदिश मे डंका बाजे।। 

जागरुक हों सभी नागरिक,
प्रेम भाव की धार बहे। 
रहें साथ में मिलकर सारे,
दिल से सब श्रीराम कहें।। 

कपट और क्लेश कटुता का,
जीवन में स्थान न हो। 
कर्म प्रधान सोंच जागे,
मन में दूषित परिमाण न हो।। 

सोंच सदा शालीन बने,
देश का खाकर देश का गाएँ। 
उद्घृत हों उद्गार जोश के,
मिलकर देशगीत सब गाएँ।। 

घृणा और नफ़रत की बातें,
करने वाले अन्दर हों। 
राष्ट्र प्रेम चहुँदिश में गूँजे,
गिरिजा हो या मन्दिर हो।। 

परम्पराएँ नाश हुईं,
बालक को वैदिक ज्ञान नहीं। 
पोषण भोजन सब दूषित है,
तन मे भी अब जान नहीं।। 

अगर हमें है चाह वृक्ष की,
पौध नई पैदा करिए। 
संस्कार संस्कृति से पोषित,
जीवन में मधुरस भरिए।। 

बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)

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