काग़ज़ की कश्ती बना,
बचपन बीता सारा,
ना होश खाने पीने का,
था बचपन आवारा।
कितनी यादें सुनहरी,
था प्यार का एहसास,
सिवाय पक्की दोस्ती के
ना कुछ होता था,
एक दूजे के पास,
ना कि कोई अमीरी, ग़रीबी
ना छुटपन, बड़प्पन का एहसास।
आती थी जब भी बारिश
इकट्ठे सभी हो जाते,
बना काग़ज़ की कश्ती,
नाली में उसे चलाते।
₹1 का सिक्का रख कश्ती के अंदर
संग दौड़ते जाते,
किसकी कश्ती बढ़ती है आगे
पीछा करते-जाते।
भीग जाते कपड़े सारे,
भीग जाती चप्पल,
पर मस्त मगन हम सभी,
ख़ुशियों मे नहाते।
सच वो दिन भी क्या दिन थे यारों,
कितनी मस्त थी नादानी,
सोच ही सारी बातें आँखों में भरता पानी।
वर्षा अग्रवाल - दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल)