आँखें - कविता - कुमुद शर्मा "काशवी"

ये आँखे अब बूढ़ी हो चली है
अधूरे ख़्वाबों को सँजोते सँजोते,
जो देखती थी, सुनहरे ख़्वाब कभी
मचलती थी चपलता से तुझे रिझाने को,
तुम कहते, मृगनययनी सी तू
आँखों से हाल ए दिल बयाँ करती हो,
दिल करता है, इनमे डूब जाऊँ,
इन आँखों की जादूगरी से भी डरता हूँ
कहीं इनमें क़ैद न हो जाऊँ,
लफ़्ज़ जो होठों पे न आ सके
आँखों की भाषा ने पढ़ लिया,
नैनो की गहराइयों से इक़रार हुआ
इक नए सफ़र का आग़ाज़ हुआ,
आँखों में रंगीन मस्तियाँ छाई थी
कि ज़िन्दगी ने आँख मिचौली खेली,
आँख दिखाने, तुम पहुँचे सरहद पर
न तुम लौटे, न कोई ख़त आया,
अश्रु संग कई सावन गुज़रे
तब से तेरी राह निहारते
अब ये थक चुकी है,
नींद भी इनसे रुठ चुकी है
न पलकें बंद होती है
न अधूरे ख़्वाब पूरे होते है,
लोग कहते है, शहीद तुम हो गए
पर ये बेबस आँखें, कहाँ कहा मानती है,
ये तो तेरी शहादत पर
आँसू भी न बहा सकी
नीर इनका सूख चुका है,
ये तो आज भी तुझे ढूँढती है,
जो सपने, अधुरे रह गए
उन्हें फिर से बुनना चाहती है
तुझे पलको में बंद कर
क़ैद करना चाहती है।

कुमुद शर्मा "काशवी" - गुवाहाटी (असम)

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