ये ज़िंदगी है जनाब - कविता - केवल जीत सिंह

जिस्म के अस्तर को
ज़िंदगी उधेड़ती रहती है।
तन मन को
रूई की तरह
धुनती रहती है।
अंतरमन को पिंजती
रहती है।
आदमी के वजूद को
बिगाड़ती, बिखेरती, छितराती रहती है।
ज़िंदगी अपने
धूनी कुंड में देह की
धूनी जलाए रहती है।
सिलबट्टे की तरह
दरदरा पीसती
रहती है।
छल्ली (मकई का भुट्टा) की तरह कूटती रहती है,
घाट के पत्थर पर
कपड़े की तरह
पटकती रहती है।
भट्ठे में ईट की तरह
आग में दहकाए
रहती है।
चढ़ा के खोपा (पट्टी)
आँखों पर, कोहलू के
बैल की तरह
घुमाती रहती है।
बुत तराश के पत्थर
की तरह काटती, कटरती,
तराश्ती रहती है।
ये ज़िंदगी है जनाब
जीने की क़ीमत 
वसूलती रहती है।

केवल जीत सिंह - मोहाली (पंजाब)

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