गुरु - कविता - बृज उमराव

बिन गुरु बहे न ज्ञान की गंगा,
बिन गुरु जग अंधियारा।
ज्यों बिन दीपक घना अँधेरा,
अंधाकुप्प जग सारा।।

गुरु की खोज मे जग जग भटके,
मिले नहीं गुरु ज्ञानी।
स्वच्छ चित्त मन सुन्दर गुन गन,
मन न रहे अभिमानी।।

गुरु गोविंद की तुलना करते,
कह गए दास कबीरा।
राह बताई गुरु ने प्रभु की,
तुम ही जग के हीरा।।

करें निरन्तर गुरु गुन सुमिरन,
न्यारी राह निकाली।
छाया में गुरुदीन कृपा की,
पाई राह निराली।।

गुरु की महिमा का वखान,
हम कैसे कर पाएँ।
सागर से अंजुरी भर जल ले,
अपनी प्यास बुझाएँ।।

गुरु है ज्ञान गुणों का सागर,
गुरु से बड़ा न कोय।
गुरु की महिमा के वर्णन में,
अक्षर भी कम होय।।

ज्यों मांटी के लोंदे से,
कुम्हार पात्र बनाता।
गुरु की छाया में शिष्य एक,
विद्वान भीरु बन जाता।।

गुरु महिमा कितनी हम गाएँ,
नहीं है कोई सीमा।
चहुँदिश फैले ज्ञान रश्मियाँ,
गर्वित होवे गरिमा।।

बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)

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