गुरु - आलेख - कर्मवीर सिरोवा

गुरु अपने सभी शागिर्दों पर रहमतें बरसाता है अगरचे ज़ुबाँ से बरसे या मास्टरजी के दिव्य डंडे से। जिसने ये ईल्म, नेमतें हासिल कर ली वो ख़ुशक़िस्मत है, उसे जीवन के किसी भी इम्तिहाँ से घबराने की ज़रूरत नहीं, पर जो गुमाँ के अधीन होकर या गुरु की जाति के कारण तुच्छ मानसिकता रखता हो, उसे जीवन के किसी इम्तिहाँ में सफलता नहीं मिल सकती। वो कुदरत के इस अनुपम उपहार से महरूम रह गया। गुरु सभी को इंसानियत की राह पर चलने और ज़िंदगी जीने की कला सीखाता हैं। गुरु समाज को विवेक की शीतल रोशनी व नैतिक मूल्यों की मीठी छाँव देता हैं। जिससे इंसान सही-ग़लत, हक़-बातिल की पहचान कर सकें। गुरु इंसानों को सिर्फ़ शिक्षा ही नहीं देता बल्कि जीवन जीने का हुनर सिखाता है। गुरु के लिए विद्यार्थी मालदार हो या ग़रीब, आका हो या ग़ुलाम, समाज का मुअज़्ज़ज़ या कोई मामूली आदमी, कोई धर्म हो या कोई जाति सभी समान दृष्टि से देखें जाते है। इसी कारण गुरु का स्थान देवतुल्य हैं।
गुरु के आशीर्वाद से महरूम होने पर जीवन के कोई मायने शेष नही रहते, ऐसे मनुष्य के लिए जीवन नरक के समान प्रतीत होता है। ऐसे व्यक्तियों के लिए जीवन क्या हैं...
कुछ पंक्तियों ये दर्द प्रकट करना चाहूँगा-

"ज़िंदगी इस क़दर डस रही है मुझे,
न अँधेरी रात पनाह दे रही है मुझें,
न उजाला जीवन दे रहा है मुझे,
क्या ज़ुर्म किया गया कि
ये सफ़र इस क़दर हैराँ किया जा रहा है मुझें।।"


कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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