हे ईश्वर तेरा खेल निराला होता है।
सबको समान बनाया तूने,
कोई अमीर तो कोई ग़रीब क्यों होता है?
तेरा बनाया इंसान भूखा ही रहता है,
कोई धन दौलत का, कोई शोहरत का
तो कोई पेट का भूखा होता है।
कोई छप्पन भोग खाकर सोता है,
तो कोई एक वक़्त की रोटी को तरसता है।
ईश्वर तेरा खेल समझ नहीं आता,
एक सूखी रोटी समझकर फेक देता है
दूसरा भूखे पेट सो जाता है।
हे ईश्वर तेरा खेल निराला होता हैं।।
हे ईश्वर जब तेरे दरबार में
कोई भेदभाव नहीं होता है,
इंसान धरती पर जन्म लेता हैं
कोई मख़मल के गद्दो पर
तो कोई चटाई पर पैदा क्यों होता हैं?
क़िस्मत का खेल तूने क्या ख़ूब बनाया,
कोई पैदा होते ही राजकुमार बन जाता है,
तो कोई पैदा होते ही फ़क़ीर कहलाता हैं।
हे ईश्वर तेरा खेल निराला होता है।।
फेंक देते है जो सूखी रोटी समझकर,
काश उस रोटी की अहमियत समझ पाता।
सूखी रोटी की क़ीमत क्या होती है,
उस से पूछ जो हालात का मारा होता है।
हे ईश्वर तेरा खेल निराला होता हैं।।
गाज़ी आचार्य 'गाज़ी' - मेरठ (उत्तर प्रदेश)