ज़मीर - कविता - सरिता श्रीवास्तव "श्री"

क्या ज़मीर देखा किसी ने,
इसकी बातें सुनी किसी ने।
लालच इतना बढ़ जाता है,
कब ज़मीर की वह सुनता है।।

करे कोई न मदद किसी की,
यह महिमा है इस दुनिया की।
जिसने भुगता वो गुनता है,
वो ही अपना सिर धुनता है।।

धन की क्षुधा नहीं मिटती है,
आहें बद्दुआ भी मिलती हैं।
आत्म मंथन वह करता है,
ज़मीर की कब वो सुनता है।।

जीर्ण हो गया पूछ न होती,
फिर पछताए आत्मा रोती।
सिर औलाद प्रेम चढ़ता है,
वही नफ़ा-ख़ोरी करता है।।

अन्त समय सब यहीं रह जाए।
फिर भी ख़ज़ाना भर न पाए,
धन को संग न ले जाता है।
वंशज सुख संग्रह करता है।।

ईश्वर का भी ख़ौफ़ नहीं है,
नियम कर्म-फल कोई नहीं है।
बुरे कर्म का फल मिलता है,
कर्ण बंद हैं नहीं सुनता है।।

अगले जन्म अनुबँध जो करता,
मार काट कर स्वर्ण को भरता।
संग जर न ले जा सकता है,
शरीर वसुधा पर मरता है।।

नारी आफ़त में जब आए,
कोई रास्ता नज़र न आए।
ज़मीर सुप्त करना पड़ता है,
मन कुण्ठित सिसकी भरता है।।

रिश्ता निभाना ही पड़ता है,
सब-कुछ सहना ही पड़ता है।
इसे मारना भी पड़ता है,
ज़िंदा रहना भी पड़ता है।।

ज़मीर ज़िंदगी में बिक गया,
इन्सान भी बे-मौत मर गया।
अमीर-ग़रीब दो सखियाँ हैं,
एक सुख दे एक दुखिया है।।

अहमियत क्या समझेगा तू,
सौदा ज़मीर कर लेगा तू।
बेच मत अपनी तू आत्मा,
इसमें बसता है परमात्मा।।

रखे शरीर जब तक प्राण है,
ज़मीर जागृत बने त्राण है।
ख़ैरात सिक्के सिर्फ़ मीत है,
ज़मीर ज़िंदा तभी जीत है।।

इसका सौदा तुम करते हो,
बेच ज़मीर धनी बनते हो।
ख़रीदार हर नुक्कड़ बैठे,
बोली ऊँची लेकर बैठे।
              
ज़माख़ोर काला-बाज़ारी,
ज़हर मौत बिकना है जारी।
जिए मरे कब फ़िक्र करता है,
मानवता ज़ख़्मी करता है।।

दुनिया में सब बुरे नहीं हैं,
अच्छाई भी यहीं कहीं है।
अंगार राख ढेर छिपता है,
अच्छा बुरा "श्री" युक्त रहता है।।

सरिता श्रीवास्तव "श्री" - धौलपुर (राजस्थान)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos