वैराग्य - कविता - दीपक राही

अब एकांत ही
मुझे रास आने लगा,
मोह को छोड़
वैराग्य ही भाने लगा,
झूठे हैं रिश्ते नाते
सब क़समे वादे,
घर परिवार की यादें,
कुछ भी नहीं है संसार में
सिवाय असंतोष के,
झूठ को छोड़ कर
वैराग्य ही भाने लगा,
मुख पर है मुखौटा लगाया
इच्छाओं से है मुक्त कराया,
भीड़ से अलग चलना सिखाया,
ख़ुशी और ग़मों को 
कर्तव्य से मुक्त कराया,
शांति की तलाश में
वैराग्य ही मुझमें समाया,
मिथ्या जीवन में
मन घुल नहीं पाया,
सोने के पात्र सा
ख़ुद को ना चमका पाया,
झूठी माया को छोड़ कर
वैराग्य ही मुझमें छलाया,
इश्क़ में दिल कितनी
बार ठोकर खाया,
पल-पल हो जिसने तरसाया,
यह सब कुछ भोग कर
वैराग्य ही मुझे भाने लगा।
धर्म और अधर्म, ऊँच-नीच
यह सब हैं यहाँ की रीत,
मुझ से बड़ा ना कोई नीच,
सच को झूठला कर
वैराग्य ही भाने लगा,
जन्म और मृत्यु के भंवर
सब जग समाया,
इच्छाओं के मोह ने
बंधनो को मज़बूत बनाया,
मिथ्य बंधनों को तोड़ कर
वैराग्य ही मुझे भाने लगा।

दीपक राही - जम्मू कश्मीर

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