तेरी गोदी की चाहत - कविता - रविन्द्र कुमार वर्मा

तेरी गोदी की चाहत, माँ मुझे फिर से सताती है।
करूँ क्या आजकल, हर-पल तुम्हारी याद आती है।।

तेरे बिन गुज़रे सालों में, रहा मैं उलझा जालों में,
जो पल में तोड़ देती थी, तुं उँगली फेर बालों में।
तेरे हाथों की वो अज़मत, ना मेरे दिल से जाती है,
तेरी गोदी की चाहत, माँ मुझे फिर से सताती है।।

तुझे थी चाह बातों की, समय कम दें मैं पाता था,
तेरे लफ़्ज़ों को, तेरे ही लबों पर छोड़ जाता था।
तरसता हूँ वो ही क़िस्से, क्यूँ अब तुं ना सुनाती है,
तेरी गोदी की चाहत, माँ मुझे फिर से सताती है।।

कभी तुं डाँट देती थी, कभी तुं रुठ जाती थी,
मैं जब आ कर मनाता था, तो पल में मान जाती थी।
ले अब रुठा हूँ मैं तुझ से, क्यों ना आ कर मनाती है,
तेरी गोदी की चाहत, माँ मुझे फिर से सताती है।।

तुं चेहरा देख कर ही, बात दिल की जान जाती थी,
मेरे हालात पल में, मात तुं पहचान जाती थी।
तेरी वो पारखी नज़रें, नज़र अब क्यों ना आती है,
तेरी गोदी की चाहत, माँ मुझे फिर से सताती है।।

रविन्द्र कुमार वर्मा - अशोक विहार (दिल्ली)

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