जिस प्यार पे हमको बड़ा नाज़ था - कविता - प्रभात पांडे

जिस प्यार पे हमको बड़ा नाज़ था,
क्या पता था वो अन्दर से कमज़ोर है।
जिन वादों पे हमको बड़ा नाज़ था,
क्या पता था कि डोर उसकी कमज़ोर है।।

करूँ किसकी याद, जो तसल्ली मिले,
रात के बाद आती रही भोर है।
ज़िक्र-ए-ग़म क्यों करें, कोई कम तो नहीं,
थोड़े नैना भी उसके चितचोर हैं।।

इतना दूर न जाओ कि मिल न सके,
प्यार की उमंगें, हवा में बिना डोर है।
वो छिंड़कते हैं नमक, मेरे हर ज़ख़्म पर,
क्या पता था कि सोंच, क़ैद उनकी दीवारों में है।।

जिस प्यार पे हमको बड़ा नाज़ था,
क्या पता था वो अन्दर से कमज़ोर है।।

रोशनी हो गई अब, तीरगी की तरह,
पास आकर मिलो ज़िन्दगी की तरह।
ग़म के लम्हे मुझे जो उसने दिए,
उनको जीता हूँ मैं, अब ख़ुशी की तरह।।

प्यार के वादों का, उसपे कोई असर ही नहीं,
उसकी फ़ितरत है बहती नदी की तरह।
बे-वफ़ाई का जिस दिन से खेल खेला गया,
अपने लोगों में मैं रहा अजनबी की तरह।।

वक़्त के दलदलों ने बदला चलन देखिए,
मुहब्बत भी पिघलती बर्फ़ की तरह।
सोंचता हूँ कहाँ दम लेगी ज़िन्दगी,
कुछ खटकता है दिल में कमी की तरह।।

जिस प्यार पे हमको बड़ा नाज़ था,
क्या पता था वो अन्दर से कमज़ोर है।
जिन वादों पे हमको बड़ा ना था,
क्या पता था कि डोर उसकी कमज़ोर है।।

प्रभात पांडे - कानपुर (उत्तर प्रदेश)

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