छवि (भाग ३) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(३)
जब देवसृष्टि का नाश हुआ, जल प्रलय प्रबलतम मचा।
जल मग्न धरा जन शून्य पड़ी, जीवित केवल मनु बचा।
बनी संगिनी चिंता उसकी, उहापोह की थी घड़ी।
दैवी अरु आसुरी वृत्तियाँ, आ सन्निकट हुई खड़ी।।

एक तरफ़ आशा श्रद्धा, लज्जा सहित इड़ा जगी।
कामवासना ईर्ष्या बरबस, धीरे-धीरे जा पगी।
प्रबल घात-प्रतिघात निरंतर, उर तल में प्रहार किया।
निर्वेद जगा प्रथम पुरुष में, हुआ वीतरागी हिया।।

'प्रियवर! पाठ पढ़ो जीवन का'- कामायनी बोल पड़ी।
तप नहीं, प्रेम पथ अपनाओ, आई देखो शुभ घड़ी।
तारों की बारात है निकली, देखो प्रिय! आकाश में।
बाँधों अपनी प्राणप्रिया को, आज निज बाहुपाश में।।

बाहुपाश में बंधी थी श्रद्धा, मनु भावावेश अपार थे।
शुचि प्रेम पराकाष्ठा पर था, दोनों एकाकार थे।
सुबह हुई तो सुंदरता से, सज्जित यह धरती लगी।
स्वप्न जगे दोनों आँखों में, उर में नव आशा जगी।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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