ख़ामोशी - लघुकथा - सुधीर श्रीवास्तव

आज आप सुबह से बहुत चुपचाप हैं। क्या बात है? तबियत तो ठीक है न? रमा ने अपने पति राज से पूछा।
राज बोले- नहीं लखन की माँ। बस किसी निर्णय पर पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ।
रमा - कैसा निर्णय?
राज- लखन की माँ! अब इस उम्र में हमसे तो कुछ होने वाला नहीं है। क्यों न हम वृद्धा आश्रम में ही चलें।
रमा- लखन के बापू बात तो ठीक है। मगर अपना घर छोड़कर क्या अच्छा लगेगा?
राज- अब अच्छा ख़राब देखोगी या सुकून से मरना चाहोगी?
रमा- आख़िर बेटा क्या सोचेगा?
राज- जो भी सोचना है सोचे, मगर अब इस तरह रह पाना मुश्किल है। अभी ज़्यादा समय भी कहाँ बीता? जब तुम मरते मरते बच गई। वो तो भला हो पड़ोसियों का। जिन्होंने इतना ध्यान रखा और एक बेटा है हमारा, जिसे फ़ुरसत नहीं है।
रमा- बात तो सही है। तो क्यों न अब हम कल ही वृद्धाश्रम चलकर अपनी सारी सम्पत्ति भी उसी वृद्धाश्रम को दान कर दें।
राज- मैं भी यही सोच रहा था। आख़िर जब बेटा ही किसी काम का नहीं हैं, तो कैसी सम्पत्ति? समझ में नहीं आ रहा आजकल का फैशन समाज को कहाँ ले जायेगा?
छोटे छोटे बच्चे भी बड़ो की इज़्ज़त नहीं करते। वो हमारा छोटू है, वो भी बाबा दादी के पाँव तक नहीं छूना चाहता।पास नहीं आता। मन में कसक सी होती है।
रमा- अब दुखड़ा न गाओ, हमारे सास ससुर ने हमें कितना सहारा दिया। मैं तो अपने माँ बाप को ही भूल गई। हमारा बेटा भूख लगने पर ही माँ को याद करता था। दादी बाबा का दुलारा जो था।
राज- अब रहने भी दो। दर्द न बढ़ाओ। उस ज़माने की बात और थी। नया ज़माना तो माँ बाप को लावारिस की ही मौत देगा। इसी एकल परिवार के कारण अब सगे संबंधी भी बिखर रहे हैं। बेटे को ससुराल और बहू को मायके के अलावा किसी की फ़िक्र नहीं रही।
रमा- आप भी बेकार की बात लेकर बैठ गए। जब हमारी फ़िक्र नहीं तो फिर कौन रिश्तेदार, संबंधी। सब ख़त्म। बस बिना कुछ सोच विचार के कल की तैयारी आज ही शुरु कर दें।
राज- हाँ लखन की माँ। अब यही ठीक है।
पति पत्नी नए विश्वास के साथ उठे और अपनी तैयारियों में लग गए।
आज उनकी ख़ामोशी टूट चुकी थी।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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