स्वार्थी दुनिया - कविता - आराधना प्रियदर्शनी

जब जी चाहा जज़्बात दिखाया,
जब जी चाहा यादों से हटा दिया।
जब जी चाहा मुकर गए वादों से,
जब जी चाहा गले लगा लिया।

ना समझी वज़ह शिकवों की कभी,
ना समझा फ़र्क़ गौरव और अभिमान में।
गिना प्यार के रिश्तों को भी,
फ़ायदे और नुक़सान में।

यह कलयुग है अद्भुत, अनूठा,
है रिश्ता यहाँ विचित्र ही।
जब तक ना घेरे मुश्किलें भयंकर,
तब तक याद ना आए मित्र भी।

जो होता है निश्छल, निष्कपट,
आत्मा उस पर ही तन मन वारती है।
पर यह बस्ती है लालच की,
हर शख़्स यहाँ बस स्वार्थी है।

रोम रोम तड़पकर चिल्लाता है,
अनुभूतियाँ ममता श्रद्धा को पुकारती है।
कहाँ गई वह पवित्रता रिश्तो की,
क्यों यह दुनिया इतनी स्वार्थी है।

आराधना प्रियदर्शनी - बेंगलुरु (कर्नाटक)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos