सुन लो सारे - कविता - कर्मवीर सिरोवा

रफ़ कॉपी में रंग रखों 
तुम अब मुक़म्मल सारे,
तुम्हें लिखना होगा 
पढ़ते रहना होगा
गरचे स्कूल बंद हो सारे।

रूह के लिबाज़ को 
कुछ यूँ पेश किया करो,
तपने दो ख़ुद को
पर आफ़्ताब बनो सारे।

रेत का मलबा हैं वजूद, 
इंकार नहीं किया करते,
मुक़म्मल होना हैं? 
इंसाँ फ़रिश्ते नहीं होते प्यारे,
चाँद को छूना हैं तो 
मेहनत करो सारे।

जिनका अब तक रहा,
किताबों का सफ़र अच्छा,
जलती महक में वो उलझें,
नहीं समझ रहें हो तुम 
सही ग़लत क्या हैं,
क्यों भटक रहे हो सारे।

इश्क़ में गुफ़्तगू के लिए 
अभी पड़ा ज़माना हैं,
घरों में क़ैद हो तो पढ़ो,
ये उम्र सृजन करती हैं,
पेशानी का हर फ़साना,
तक़दीरें सजती नहीं,
सजाई जाती हैं,
कर्मवीर कहता हैं 
सुन लो सारे।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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