मैं नारी हूँ - कविता - गुड़िया सिंह

अपने हाथों,
अपने सपनो का गला घोंटा,
अपना सम्पूर्ण जीवन,
मैंने औरो को सौंपा।
मैं नारी हूँ।

बंधे है पाँव मेरे
समाज के खोखले
धरणाओं की ज़ंजीरों से,
इन्ही में जकड़कर
मैं सम्मान अपना हारी हूँ।
मैं नारी हूँ।

हूँ त्याग की मूरत मैं,
हर रूप में ही
दुनिया के लिए
केवल एक ज़रूरत मैं।
मैं नारी हूँ।

हर अत्याचार, पीड़ा को सहने वाली,
फिर भी ख़ामोश
रहने वाली,
मैं नारी हूँ।

दिखावे को मैं मुस्कुराती,
अंदर ही अंदर
हर पल दर्द से कहारती।
मैं नारी हूँ।

युग-युग से ही मेरे भाग्य में
इम्तेहान लिखे गए,
तक़लीफ़ें, ज़िल्लत,
दर्द तमाम लिखे गए।
न मिला मुझे,
मेरे हक़ का मान कभी,
समय समय पर
देने को बलिदान लिखे गए।

घुटन में जी रही थी,
घुटन में जी रही हूँ,
मैं कई युगों से ही
अपने आँसू पी रही हूँ।
मैं हूँ क्यों अबला,
क्यों बनाई गई बिचारी हूँ।
मैं नारी हूँ।

अपने हर स्वरूप में ही,
होती नित्य प्रताड़ित हूँ,
मैं नारी हूँ।

गुड़िया सिंह - भोजपुर, आरा (बिहार)

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