सब्र का बाँध तोड़ते क्यूँ हो - ग़ज़ल - आलोक रंजन इंदौरवी

अरकान : फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन
तक़ती : 2122 1212 22/112

सब्र का बाँध तोड़ते क्यूँ हो,
अपना ही राज़ खोलते क्यूँ हो।

इस सियासत का फ़ायदा क्या है,
हर सुबह कड़वा बोलते क्यूँ हो।

कद्र करना तो सीख लो तुम भी,
फ़र्ज़ से मुँह को मोड़ते क्यूँ हो।

सारी जनता निराश हैं तुमसे,
फिर भी अब हाथ जोड़ते क्यूँ हो।

हर बुरे वक़्त में मैं साथ रहा,
साथ मेरा ही छोड़ते क्यूँ हो।

धीरे चल कर के ये सफ़र देखो,
क्या है जल्दी भी दौड़ते क्यूँ हो।

चाहते हो क्या सीधा सीधा कहो,
दिल ये रंजन टटोलते क्यूँ हो।

आलोक रंजन इंदौरवी - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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