मुहब्बत करके पछताना भी क्या - ग़ज़ल - आलोक रंजन इंदौरवी

अरकान : मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़अल
तक़ती : 1222 1222 12

मुहब्बत करके पछताना भी क्या।
यूँ अपनी जिंद उलझाना भी क्या।

भटककर रास्ते जो चल पड़े हैं,
है काफ़ी उनको समझाना भी क्या।

जिन्हें इंसानियत भाती नहीं है,
उन्हें जीना भी मर जाना भी क्या।

अदालत ख़ुद ही फ़ैसला देगी,
यूँ ऐसे उसको तड़पाना भी क्या।

कुचलकर दूसरों के दामन को,
भला आगे ये बढ़ जाना भी क्या।

आलोक रंजन इंदौरवी - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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