प्रकृति करवट ले रही
बदल जाते बहुत कुछ
मानव लाचार हैं
युद्ध महामारी
और आँधी तूफ़ान
तवाह ज़िंदगी
चारों ओर से दुःख के वार्ता
बे-मौसम बारिश
उड़ा लिए घर द्वार
साँसें रोक दी हवा
असमय काल के गाल में
समाते जा रहे
असंख्य जन समुदाय।
सड़क विरान
मकान की दीवारें
पूछतेे सवाल
आकाश तो नहीं बदला
आज भी कोयल कूक रही
फूल खिल रहे
मन्द मन्द हवा चल रही।
सब आफ़त इन्सान पर
इंसानियत कहाँ जा रही
वक़्त की पहचान किसे है?
कहाँ है सुख का ठिकाना
किसकी पूजा करूँ
कौन रहवर, परवरदिगार
कौन क़ैदी कौन सी भूल
सवाल बिखरे पड़े।
कल कल बहती नदियाँ
हाथ पसारे खड़ी है,
बहुत कुछ कहना रह गया
जो चले गए,
आकाश की ओर देखता हूँ
कहीं से कोई तारा
आ धमके
जिसकी ज्योति में
अलोकित हो जाती संपूर्ण धरा।
श्रृष्टि उसकी
मर्ज़ी उसकी
नया सूरज उगेगा
विश्वास ही
केवल अपना है।।
असीम चक्रवर्ती - पूर्णिया (बिहार)