ऊँची हवेली - कविता - नीरज सिंह कर्दम

फटे हुए कपड़ों में
पैरों में चोट लगी है
ठंड से ठिठुरता हुआ
आँखों में आँसू लिए
भूख से आंते
सिकोड़ता हुआ
उस ऊँची हवेली को
निहारता हुआ
एक बालक।
उस ऊँची हवेली के
कचरे के ढेर को
दूर खड़ा होकर
बड़ी लालसा से 
निहारता हुआ
वह बालक,
अपनी भूख
मिटाने के लिए
उसकी आँखें
तलाश रही है
एक रोटी का टुकड़ा।
मन में एक उम्मीद थी
उसके
कि, ऊँची हवेली में
रह रहे बड़े लोग
खाना खाकर
अक्सर
बचे हुए खाने को
फेंक देते है कचरे के
ढेर में,
तब वो उस
ऊँची हवेली के
कचरे के ढेर में
फेंके गए खाने को
उठाकर
अपनी भूख शांत कर लेगा।

नीरज सिंह कर्दम - असावर, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)

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