मज़दूर की क़िस्मत - कविता - समय सिंह जौल

ऊँचे कँगूरे किलों में,
मीनार और महलों में,
अपना खून पसीना लगाता हूँ।
संगमरमर से सुंदर दीवार सजाता हूँ।।
शाम को चटनी से खा कर,
गगन को छत बनाकर,
धरा को बिछौना बनाकर,
रात भर सुस्ताकर,
फिर काम पर लग जाता हूँ।
इन महलों में रहना
मेरी क़िस्मत में क्यों नहीं?
तारकोल के कनस्तर ढोकर,
कठोर कंक्रीट को तोड़कर,
प्यासा पसीना पीकर,
निवाला धूप का खाकर,
सरपट सड़क बनाता हूँ।
सड़क पर गाड़ी चलाना
मेरी क़िस्मत में क्यों नहीं?
नित गटर में उतर कर,
दी गई उतरन पहनकर,
घर आपका मैं सजाता हूँ।
आप कूड़ा फैलाएँ,
नाम कूड़े वाला मैं पाता हूँ।
झाड़ू की जगह क़लम,
मेरी क़िस्मत में क्यों नहीं?
जब कर्म से फल मिलता,
सबकी क़िस्मत मैं लिखता, 
अपनी क़िस्मत लिखना
मेरी क़िस्मत में क्यों नहीं?

समय सिंह जौल - दिल्ली

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