अपेक्षाएँ - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

बचपन से बुढ़ापे तक 
हर समय पनपती हैं 
असीमित अपेक्षाएँ,
माता पिता की तमन्नाए
व मुरादें होती हैं भारी।
पिता चाहता है
बालक मेरा सहारा बनेगा।
माँ चाहती कि मेरी बेटी,
बड़ी होगी तब 
रसोई का सामान सजेगा।
पढ़ लिखकर बेटा बेटी, 
होंगे जब होनहार,
हम निश्चिन्त होंगे
जब बेटा बेटी के हाथोंं में 
जीवन की होगी अपनी पतवार।
मेरा बेटा मेरे कामों
में हाथ बटाएगा।
हम आपस में
दुःख सुख बाँट लेंगे,
जब कोई संकट आएगा।
जब बेटा बन गया अफ़सर,
तब माता पिता
हो गए, बेगाने अक्सर।
मन मसोस के रह जाते,
माता पिता, जिगरी दोस्त
और भाई बहन,
व चाहने वाले।
अपेक्षाओ
का गला
घोटा जाता है,
हँसी उड़ाने में 
पीछे नहीं रहते, दुनिया वाले।
अनदेखा जब होने लगता है,
दिल में मचता है तूफ़ान भारी।
बचपन से बुढ़ापे तक
पनपती है अपेक्षाएँ सारी।
माता पिता की 
तमन्नाए होती है भारी।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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