फूल मुरझाए हैं - गीत - राम प्रसाद आर्य "रमेश"

फूल मुरझाए हैं, काँटों पे बहार आई है, 
क्या पता, कैसा ये बसन्त फ़िज़ा लाई है।
क्या पता, काँटों की फूलों से क्या अररियाई है, 
फूल मुरझाए हैं, काँटों पे बहार आई है।। 

फूल कोमल है ज़रूर, 
पर इतना कमज़ोर भी नहीं। 
आकर्षक तो है ज़रूर, 
पर आक्रामक तो नहीं।
फूल की फ़िक्र, फ़िज़ा को सदा ही रहती है, 
कहीं काँटों को यही चिढ़ तो नहीं आई है, 
फूल मुरझाए हैं, काँटों पे बहार आई है।। 

फूल है अमोल एक गहना 
इस गुलशन का। 
सहता सिहरन शिशिर की, 
दर्द ग्रीष्म झुलसन का। 
हर ग़मों-दर्द को छुपाता, हँसता, खिलता है वो, 
हर ज़िन्दे, मुर्दे, के गले में पड़ा मिलता है वो। 
कहीं काँटों को यही बात तो न चुभ आई है,
फूल मुरझाए हैं, काँटों पे बहार आई है।। 

यों तो फूलों की खुशी, 
कभी काँटों को रास न आई है।
हँसे जो फूल तो काँटों की भौंह तन आई है। 
चाहत फूलों ने तो नफ़रत काँटों ने कमाई है।
कहीं काँटों के मन यही तो न मनमुटाई है,  
फूल मुरझाए हैं, काँटों पर बहार आई है।। 

खिलना, मुरझाना तो भला, 
हर फूल का जीवन चक्र है। 
काँटों का साथ, 
जीवन-राह बोझिल औ बक्र है।। 
धन्य हैं वो फूल, जो काँटों में भी खिल आए हैं, 
डट के टकराए, घात खाए, 
काँटों से कभी न घबराए हैं। 
फूल तो हमसाए हैं, काँटों को ये समझ कहाँ आई है?
फूल मुरझाए हैं, काँटों पर बहार आई है।।

राम प्रसाद आर्य "रमेश" - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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