शक क्यूँ किया करते हो - कविता - सुनील माहेश्वरी

उस पावन देह पर तुम
शक क्यूँ किया करते हो।
आधुनिकता के इस युग में भी 
तुम बख़्श क्यूँ नही दिया करते हो।
है नहीं लाचार वो, 
फिर क्यूँ प्रताड़ित किया करते हो।
उस पावन देह पर तुम,
शक क्यूँ किया करते हो।
सब की ज़रूरत का 
ख़्याल वो रखती 
बन के एक पतिव्रता नारी,
सीता की अग्निपरीक्षा
फिर क्यूँ लिया करते हो।
उस पावन देह पर तुम 
शक क्यूँ किया करते हो।
वो निर्मल है,
वो निश्छल है,
वो गम्भीर है वो कुछ चंचल 
मृत्यु के शैय्या पर 
फिर क्यूँ सुलाया करते हो।
उस पावन देह पर तुम 
शक क्यूँ किया करते हो।
क्यों दे वो हर दिन परीक्षा
तुम निर्णायक होते हो कौन,
गहरे घाव भी जो सहले,
वो घाव के तुम अधिकारी कौन,
यूँ भाईचारे में
कलंक लगाकर तुम 
रौब क्यूँ दिखाया करते हो।
उस पावन देह पर 
तुम शक क्यूँ किया करते हो।

सुनील माहेश्वरी- दिल्ली

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