ताजमहल मुस्कुराता है - कविता - डॉ. कुमार विनोद

कितनी बार देखा होगा
मुमताज़ की आँखों ने 
सूरज को 
किरणें उधार देते हुए पूनम के चाँद को।
महसूस किया होगा परमार्थ का स्वत्व, प्रणयानुभूति 
और समर्पण           
शाहजहाँ के प्रेम में 
आबद्ध होने पर।
ग़ज़ब का समर्पण।
हुबहू अपनी कल्पना को 
प्रेम के कैनवास पर साकार किया होगा,
तब कहीं जाकर अर्थहीन होने से बची होगी ज़िंदगी।
अमर हो गया प्रेम 
हमेशा-हमेशा के लिए ताज में।
देखा होगा -
चाँदनी को छककर पीते हुए सूरज की तपन को।
इसी शीतलता में
परिवर्तित होकर  ईषत प्रेम के स्रोतस्विनी बन।
जमुना इस अक्स को अपनी बाहों में समेटती है और पूनम का चाँद सतह पर तैरने लगता है 
इसी शीतलता में ताजमहल जवाँ हो जाता है ।
तब पता नहीं कहाँ से 
इसके अंदर दूधिया प्रकाश आ जाता है ।
सचमुच चाँद सूरज का 
समर्पण 
मुमताज़ की भावनाओं से 
चिरयौवन बन कहीं न कहीं 
पूर्णता से टकराता है 
और चाँद दिन भर सूर्य का तपन पी-पीकर 
तिनका-तिनका दर्द उठाता है 
तब कहीं -
चाँदनी रात में ताजमहल मुस्कुराता है।

डॉ. कुमार विनोद - बांसडीह, बलिया (उत्तर प्रदेश)

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