मज़दूर - कविता - तेज देवांगन

हाँ मैं मज़दूर हूँ,
बेबसी और लाचारी से मजबूर हूँ।
हाँ मैं मज़दूर हूँ,
छल प्रपंच मुझे नहीं आते,
सीधा सुगम हम राह बनाते।
करते नहीं कोई बुरा काम,
नहीं करते हम जग बदनाम
दो टूक रोटी के लिऐ बेबस बेक़सूर हूँ,
हाँ मैं मज़दूर हूँ।।
पसीना बहा हम कर्म कर जाते,
अपनी खुदग़र्ज़ी किसी को ना बताते।
तपते रात दिन अस्लाव में,
कहीं धूप कहीं छाँव में।
हर समानतावों से दूर हूँ,
हाँ मैं मज़दूर हूँ।
मेरे नाम पे बने, बड़े कारखाने,
नहीं मिला मुझे कमाने,
चंद दिनों के लिए, मै उनका जी हुज़ूर हूँ,
हाँ मै मज़दूर हूँ।
मुझमें है, एक चाह की आशा,
रोटी और पनाह की आशा,
फिर चंद दानो के लिए मजबूर हूँ,
हाँ मैं मज़दूर हूँ।

तेज देवांगन - महासमुन्द (छत्तीसगढ़)

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