मधुशाला- एक उन्माद - कविता - कर्मवीर सिरोवा

गया एक बार मैं अपने सपने का इंटरव्यू देने,
उस रास्ते बीच मँझधार नज़र आई मधुशाला अपने,
जिसे देख ठिठक गए हर किसी के सपने,

मुझें लगा अजीब,
क्योंकि थी ये नाचीज़,
क्यों खुल गई ये आम रास्ते,
जो कर रही हैं बर्बाद सभी को हँसते हँसते,

ज़ेहन से निकला क्रोध रूपी ज़हर,
क्यों ये मदिरा मचा रही हैं क़हर,

क्यों ना समझतें ये नादान,
ये मधुशाला तो हैं कब की बदनाम,

आ रहा हैं दिमाग में सवाल,
जिसने मचा दिया हैं ज़ेहन में बवाल,

क्यों पीते हैं ये शराब,
पता हैं जब, करती ये ख़राब,

होठों से जाम लगातें, चुस्की लेते, नमकीन खाते,
जेबभर के पैसा लुटाते,
ये घरवालों को ना कुपोषण से बचाते,
आँखें भी सबसे ज्यादा स्वजन को दिखाते,

आ रहा हैं दिमाग़ में सवाल,
जिसने मचा दिया हैं ज़ेहन में बवाल,

क्यों पीता हैं तू हाला,
जो करती हैं तेरे जीवन पर कष्टों का बोलबाला,

मैं तो राह पकड़कर चल रहा था,
पता चला पहुँच गया मैं भी मधुशाला,
हाँ, इस आम रास्तें खुल गई थी मधुशाला,
जिसे देख उतर गई सबके जीवन से इंद्रधनुष रुपी माला,

मधुशाला में देख हाला के दीवानों को,
जो दिखा रहे थे वहाँ अदा अपनी,
मैं भी कह गया मधुशाला में अपनी,
हे हाला, जिस प्रकार थिरकती हैं तू प्यालों में,
नचाती हैं तू साक़ी के हबीबों को घरवालों में,

कोसता हूँ तेरी हर बूँद को,
जिसे पीने आते हैं मधुशाला,

दोष हैं इस मधुशाला का,
जो रखती हैं तरह-तरह की हाला,
बुलाती हैं पीने वालों को,
आ जाओ प्रियतम मेरे,
बुला रही हैं तुम्हें तुम्हारी मधुशाला,

बंद थी पर खुल गई ये मधुशाला,
मैं क्या करूँ, 
करना हैं जो वहीं करती हैं मधुशाला,
करना हैं जो वहीं करती हैं मधुशाला।।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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