कोरे काग़ज़ और क़लम - गीत - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

मैं  काग़ज़  के    कोरे   पन्नों     पर,
अविरत अन्तर्मन   भाव लिखती हूँ,
जन ज़ज़्बातों  की   मालाओं    को,
कोरे   काग़ज़  पर  रव  गढ़ती    हूँ।

हूँ मौन किन्तु अविरत लेखन पथ,
क़लम  संवेद  भाव  चूमती     हूँ।
संजय  बन  नित  दिग्दर्शक  जग,
भूत   भविष्य  मानक   गढ़ती  हूँ।

हूँ  दर्पण बन नित  वर्तमान    का,
व्यथित   हृदय  का दर्द  पढ़ती  हूँ।
जनजीवन के   गर्दिश   अवसादन,
कोरे  काग़ज़  अविरत लिखती  हूँ।

जीवन     की    घटती   दुर्घटनाएँ,
स्वार्थ कपट छल नफ़रत पढ़ती हूँ।
नित देख रही बिकते  अपनों   को,
कुछ भटकी  क़लमें  चूम   रही  हैं।

अब  राष्ट्र द्रोह बस बदज़ुबान बन,
चौथ  नयन पथ  बन खेल रही  हूँ।
नित जाति धर्म  भाषा   में बँटकर,
कलमें    काग़ज़  को  चूम रही है। 

क्रान्ति दूत मैं अविरत मशाल बन,
आज़ादी  रण  कृति नित रचती हूँ।
स्वर्णिम  अतीत का गीत मधुरतम,
चिरकालिक अबतक नित गाती हूँ।

हूँ   मन भावुक  करुणार्द्र   सदय  मैं,
नित दीन  दलित धड़कन लिखती हूँ।
राजनीति    कूटनीति    घटित    राष्ट्र
नित सामाजिक  बातें    गढ़ती     हूँ। 

लावारिश     लाशों     से   पटे   हुए,
सड़क   छाप  जन जीवन पढ़ती  हूँ।
दुष्कर्मी  कामी  खल जन     समाज,
नारी     उत्पीड़न   से दिल  रोती  हूँ। 

अवसाद ज़ख़्म घायल जन चितवन,
कोरे  काग़ज़    पर  गम  लिखता हूँ। 
राष्ट्र भक्ति    और   प्रेम  भाव  हृदय
मैं क़लम निरत जन मन   गढ़ती  हूँ। 

जनता  आर्तनाद  द्वन्द्व   अन्तर्मन,
देश  काल  पात्र  जगत पढ़ती  हूँ।
न्याय नीति व त्याग सत्यविनायक,
समरसता नित  काग़ज़ गढ़ती   हूँ।

काग़ज़ से चिर सम्बन्ध  स्वयं  का,
प्रीति मधुर मन साजन   बनती  हूँ।
ऋतुराज माधवी  प्रीत मिलन  रस,
राष्ट्र   प्रेम अधर मुख  चूमती    हूँ। 

अरुणाभ  सृष्टि   संगीत   मधुरतम
कल्याण मनुज बस दिल रखती हूँ।
हो प्रकृति स्वच्छ निर्मल नभ भूतल,
नवआश  हृदय काग़ज़  गढ़ती   हूँ।

हूँ अति घायल गमगीन हृदय  तल,
चौथ नैन लेखन लखि चिन्तित  हूँ।
कहीं  भविष्यत  कोरे काग़ज़  बन
मैं कलम शोक विह्वल  रहती    हूँ। 

मैं क़लम  लेख  नित काल भाल पर,
इतिहास  स्वर्ण    गाथा  लिखती  हूँ।
सजनी  बन   कोरे  काग़ज़  मधुरिम,
नव प्रगति कीर्ति   चुम्बन  करती  हूँ।

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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