क़ामयाबी - कहानी - अंकुर सिंह

ठाकुर वंशीलाल हीरापुर गाँव के बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, साथ में क्षेत्र के कई गावों में ठाकुर साहब की सामाजिक और राजनीतिक हैसियत भी थी। ठाकुर साहब का खुशहाल परिवार था परिवार के नाम पर बेटा रमेश, बेटी रागिनी और पत्नी सुनीता थी। क्षेत्र के लोग प्यार से वंशीलाल जी को वंशी जी भी कह के बुलाते थे।

बेटी रागिनी की शादी हो चुकी थी और दामाद एक अच्छे कंपनी मे कार्यरत था। बेटा रमेश की पढ़ाई गाँव के स्कूल तक हो गई और उच्च शिक्षा के लिए पास के शहर के बड़े कॉलेज में दाखिला हुआ। रमेश भी पढ़ने में बड़ा होशियार लड़का था और शहर में रहकर दिल लगाकर पढ़ने लगा उसी कॉलेज में शिखा भी पढ़ाई हेतु दूर गाँव से आई थी जो शहर में अपने मामा के यहाँ रहकर कॉलेज की पढ़ाई करती थी। शिखा भी पढ़ने में काफी होशियार थी और हमेशा अव्वल आती थी, रमेश और शिखा दोनों एक ही क्लास में पढ़ाई करते थे और पढ़ाई के संदर्भ में उनका बार बार मिलना और बात करना होता था, बाद में उनमें एक अच्छी दोस्ती बन गई और उनकी ये दोस्ती कब प्यार में बदल गई। दोनों को कुछ पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे वह समय भी निकट आ गया जब कॉलेज की पढ़ाई खत्म होने के कगार पर पहुँच गई अब दोनों के दिलों में बैचेनी उत्पन्न होने लगी और साथ में एक डर भी लगने लगा बिछुड़ाने का, एक दिन ऐसे ही रमेश की बाहों में लिपटी पार्क में बैठ कर बात करते हुए शिखा ने रमेश से कहा रमेश अब हमारी पढ़ाई खत्म हो गई कुछ दिनों में पढ़ाई का परिणाम (रिजल्ट) भी आ जाएगा। अब हमें अपने परिवार में अपनी शादी की बात की चर्चा करनी चाहिए शादी की बात सुन रमेश चौक पड़ा क्यूंकि शिखा एक दलित जाति से आती थी और रमेश उच्च जाति से तथा रमेश ये भी जानता था कि उसका परिवार गैर बिरादरी में शादी को अनुमति नहीं देगा। इन्हीं डर से रमेश कुछ बोल ना सका उसे चुप रह देख शिखा रमेश को हिलाते हुए बोली रमेश ! रमेश ! कहा खो गए तुम रमेश !, तुम तो अभी से हमारी शादी के हसीन सपने देखने लगे।

रमेश हक्का बक्का सा चुप सा था और कुछ बोल नहीं पा रहा था उसे चुप रहता देख शिखा ने पूछा क्या हुआ रमेश चुप क्यूँ हो? पहले तो रमेश बताने में आना-कानी करने लगा फिर शिखा के बार-बार जिद्द करने पर रमेश ने उसे पूरी बात बताई और रमेश की बातें सुन शिखा की आँखें भर आईं, और बोल पड़ी तुम्हारे बिना मैं जी नहीं पाऊँगी रमेश। मेरे लिए तुमसे बिछड़ने से अच्छा मर जाना ही सही होगा इतना कहते ही शिखा उठकर जाने लगी तभी रमेश ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला नहीं हम मरेंगे तो साथ-साथ और जिएँगे तो भी साथ-साथ। खैर काफी सोचने पर दोनों ने शादी करने का विचार किया और फिर शहर के एक मंदिर में अपने परिवार को बिना बताए शादी के बंधन में बंध गए और उसके कुछ ही हफ्ते बाद दोनों के कॉलेज के परिणाम भी आए और दोनों काफी अव्वल अंक (नंबर) से उत्तीर्ण (पास) हुए और फिर रमेश शिखा को लेकर अपने गाँव को चल पड़ा।

गाँव में बेटे के पढ़ाई द्वारा अव्वल अंक लाने की खुशी में वंशीलाल जी ने बेटे के स्वागत के लिए बड़ी धूमधाम से तैयारी कर रखी थी। बेटे के स्वागत कार्यक्रम में नात- रिश्तेदारों को भी जुटा रखा था। खैर कुछ समय बाद वंशीलाल जी के घर के सामने एक कार रुकी जैसे ही कार रुकी वैसे ही रमेश की माँ सुनीता जी आरती लेकर दरवाजे पर आ गई। कार का दरवाजा खुलते ही रमेश के साथ शिखा भी नीली रंग की साड़ी पहने हुए निकली। बेटे के साथ एक लड़की को देख वहाँ उपस्थित वंशीलाल और बाकी लोग सन्न रह गए, तभी अचानक सुनीता बोल पड़ी बेटा ये साथ में कौन है? माँ की बात पूरी होने पर रमेश ने बताया कि माँ ये आपकी बहू शिखा है, इतना सुनते ही वंशीलाल और सुनीता को मानों साप सूंघ गया हो और बाकी नात-रिश्तेदार आपस में कानापुसी करने लगे, ऐसा लगा जैसे कुछ समय के लिए सब रुक सा गया हो वहाँ। तभी ठाकुर वंशीलाल जी ने रमेश से पूछा ये लड़की कहाँ की है, इसके माँ-बाप किस हैसियत में आते है इसकी जाति बिरादरी क्या है?

रमेश ने बताया कि शिखा भी पढ़ने में काफी होशियार और मेरे से भी ज्यादा अव्वल नंबर से अपनी पढ़ाई पूरी की है। रमेश की बात पूरी हो इसके पहले ही वंशीलाल बोल पड़े आखिर ये लड़की किस समाज और किस जाति से आती है जैसे ही रमेश ने बताया कि लड़की गैर बिरादरी से वो भी दलित जाति से आती है, इतना सुनते ही वहाँ एकदम सन्नाटा सा छा गया और वंशीलाल ने रमेश का हाथ खिचतें हुए कहा निकल जा यहाँ से दुबारा चेहरा ना दिखना अपना, इस दलित लड़की को अपने घर में रख मुझे अपवित्र नहीं करना अपना घर।

रमेश और शिखा वही खड़े थे मानों उनके पैर से ज़मीन खिसक गई और अब वो दोनों जाए तो जाए कहाँ अब? सुनीता जी ममतामयी हृदय से बेटे रमेश के लिए कुछ बोलना चाह रही थी लेकिन बंशीलाल जी के डर के कारण कुछ बोल ना सकी और बेबस हो चुप रही।

अंततः रमेश और शिखा को अपमानित होकर गाँव से वापस लौटना पड़ा, गाँव से निकलते ही शिखा ने अपने शहर वाले मामा को फोन किया जिनके यहाँ रुककर पढ़ाई करती थी, पूरी बात सुन मामा तो पहले चुप रहे फिर शिखा और रमेश को अपने यहाँ कुछ दिन रुकने की अनुमति दे दिया।

अब रमेश जल्दी ही काम की तलाश में लग गया ताकि अपना और शिखा का खर्च उठा सके। दो-तीन दिन के कोशिश के बाद रमेश को शहर में काम मिल गया और उसका मालिक भी नेक दिल का था उसकी मजबूरी को देखते हुए कुछ रुपए एडवांस के रूप में रमेश को दिया। अब रमेश शहर में किराए का मकान लेकर शिखा के साथ रहने लगा क्यूंकि शिखा शुरू से पढ़ाई में काफी अव्वल थी और उसने फिर से पढ़ाई की इच्छा प्रकट की रमेश के सामने। रमेश ने भी हामी भर दी और शिखा को किताबें लाकर दिया पढ़ने के लिए।

जैसे-तैसे दोनों का पारिवारिक जीवन चल रहा था रमेश को कभी-कभी अपने गाँव की बड़ी याद आती लेकिन वह अपने पिता वंशीलाल जी के डर के वजह गाँव जाने में डरता था और उसकी माँ सुनीता माँ की ममता से वशीभूत कभी-कभी वंशीलाल जी से चोरी से बेटे रमेश और बहू शिखा को फोन करके हाल-चाल ले लेती थी। खैर समय बीतता गया और दो से तीन सालों में शिखा ने प्रशासनिक पद में उच्च अधिकारी की नौकरी प्राप्त कर ली और कुछ दिन शहर की नौकरी के उपरांत उसका तबादला गाँव के पास हो गया। जैसे ही शिखा ने वहां ज्वॉइन किया मानों गाँव के लोगों में वह चर्चा एक विषय बन गई की वंशी जी की बहू अधिकारी बन कर आई है। गाँव का विकास करेंगी और ये सब सोचकर सब लोगों ने सर्वसम्मति से वंशीलाल जी के पास गए और उनसे अनुरोध किए कि बहुरानी को गाँव में बुलाए, पहले तो ठाकुर साहब तैयार नहीं लेकिन गाँव वालों के अनुरोध के कारण ठाकुर साहब ने संदेशा भेजवाया शिखा और रमेश को घर आने को, रमेश मानों फुले नहीं समा रहा था पर शिखा ने वहाँ जाने पर ऐतराज जताया बहुत कहने पर रमेश के सामने एक ही शर्त रखी की वहाँ तभी जाऊँगी जब उस घर को गंगा जल से घुला जाए क्योंकि कभी मेरे वजह से वह घर अपवित्र हो रहा था इसलिए पहले उसे गंगा जल से घुल पवित्र किया जाए और सभी लोग मेरे हाथों से दिए जाने वाले भोजन को स्वीकार करें। भोजन की बात तक रमेश को सही लग रही थी लेकिन गंगा जल से घर को घुलना उसके गले नहीं उतर रहा था कि कैसे वंशीलाल जी से कहे ये बात? खैर शिखा की जिद्द के सामने झुकते हुए रमेश ने ये बात अपनी माँ सुनीता और बहन रागिनी को बताई, उनकी ये बात सुन घर में फिर से अलग सा माहौल बन गया और परिवार और ग्रामीणों के अनुरोध पर पुनः वंशीलाल जी को ना चाहते हुए झुकना पड़ा। फिर पूरे घर को गंगा जल से घुला गया फिर उसी दिन की तरह वंशीलाल जी के घर के सामने फिर से कार रुकी और कार का दरवाजा खुलते ही रमेश के साथ शिखा पुनः नीले रंग की साड़ी में निकली। रमेश की माँ सुनीता ने पूरे रीति-रिवाज से बहू-बेटे की आरती उतार करके उन्हें घर में लाई और घर में एक खुशी का माहौल बन गया उसी शाम शिखा ने अपने हाथों से खिचड़ी बनाई, पूरे परिवार और नात-रिश्तेदारों को खिलाया, सबके साथ ठाकुर साहब भी अपने किए पर शर्मिंदा हो सिर नीचे कर खिचड़ी को खा रहे थे।

ये कहानी हमें यही प्रेरणा देती है कि आपको कोई अपमानित करे या आपकी आलोचना करे तो उसपर आप तुरंत प्रतिक्रिया ना करें बल्कि अपनी मेहनत और कामयाबी से लोगों के मुँह पर ताले लगाए क्यूंकि आपकी मेहनत और क़ामयाबी ही आपको लोगों से अलग करती हुईं शिखर तक ले जाती है और दूसरी सीख ये मिलती है कि इंसान को कभी किसी से उसकी जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए अपितु उसमे इंसानियत, स्वभाव और गुण को देखते हुए उसका सम्मान करना चाहिए।
क्यूंकि किसी ने बहुत खूब कहा है-
"परेशानियों से भागना आसान होता है,
मुश्किलें ज़िन्दगी में एक इम्तिहान होता है।
हिम्मत हारने वाले को कुछ नहीं मिलता ज़िन्दगी में,
लड़ने वालों के क़दमों में ही तो सारा जहान होता है।।"

अंकुर सिंह - चंदवक, जौनपुर (उत्तर प्रदेश)

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