बोल रश्मि सम भास्कर, माणिक बोल अमोल।
सिंह तुल्य हो आत्मबल, साँच मधुर रस घोल।।१।।
संजीवक हो वायु सम, वाणी जीवन आप।
पोषक परहित अन्न सम, मिटे हृदय संताप।।२।।
सदा बाण सम घातकी, है वाणी संधान।
नित विवेक मति तुला पर, तौलो बोल सुजान।।३।।
मौन रहो सबको सुनो, सोचो बुद्धि विचार।
मंद हास मित भाष बन, जीवन शुभ उपचार।।४।।
उषाकाल मृदु अरुणिमा, वाणी दे आनंद।
नयी आश प्रमुदित हृदय, हो परसुख अभिनंद।।५।।
दिया ईश धनुवत अधर, करने को सन्धान।
वाग्वाण संधान में, भाव न हो अपमान।।६।।
ओष्ठ सदा ही मान दे, है जीवन वरदान।
सोच समझ खोलें सभी, वरना हो अवमान।।७।।
अधर बाण होता प्रखर, कर घायल कटु चोट।
बन्धु मीत नाशक बने, जीवन भर मन खोट।।८।।
एकबार छूटे धनुष, वाग्वाण अतितेज।
कितने को देता सुकूं, रखना इसे सहेज।।९।।
होंठों की ये लालिमा, सम वाणी अभिराम।
तनिक इधर से उधर हो, करती है बदनाम।।१०।।
बदज़ुबान नित बदचलन, नाशक घर परिवार।
विवेक मति संयम विरत, बिखराता संसार।।११।।
मृदुल प्रकृति नित संयमित, विनयशील व्यवहार।
मधुरिम हो वाणी श्रवण, अपनापन जग सार।।१२।।
निश्छल निर्मल भावना, होठों पर मुस्कान।
मधुरिम रम्य सुभाष मुख, मिले जगत सम्मान।।१३।।
समधुर हो मनभावना, वही होंठ पर आय।
सत्यपूत नित चारुतम, समरस हो इठलाय।।१४।।
अधरों की हर भंगिमा, प्रकृति भाव उल्लेख।
दे आभा आह्लाद नित, बन वाणी अभिलेख।।१५।।
वाणी की महिमा सदा, रत्नों में अनमोल।
सुनकर सब अपना बने, अरि मानस भी डोल।।१६।।
अहंकार प्रतिरूप है, झूठ पड़ोसी हार।
जीते हम संसार को, मृदु वाणी आचार।।१७।।
वरदे वाणी भारती, हरो तिमिर हर शोक।
पावन त्रिभुवन श्रीप्रदे, करो जगत आलोक।।१८।।
अभिनव कोकिल हो मृदुल, वाणी है अनमोल।
भावप्रणव कवितामुखी, मनुज हिन्द जय बोल।।१९।।
कवि निकुंज कवि कामिनी, बिम्बाधर अभिसार।
मृदुल मुकुल हो चारुतम, वाणी बस शृंगार।।२०।
डॉ. राम कुमार झा 'निकुंज' - नई दिल्ली