रात सुनाए गीत गोरी - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

रात सुनाए
गीत गोरी
भोर भये
रस बरसाए।
प्रिय  छोड़ के
संग मोरे 
अब क्यों
नैना तरसाए,
रात सुनाए गीत गोरी, भोर भये रस बरसाए।
भोर हुआ
सारा आलम जागे,
सपनो में डूबा
दिल न लागे।
जहाँ देखूँ
वहाँ तू मेरे आगे
मन बिरहि
नजरोंं की
एक अदा मांगे।
करता इंतज़ार
हो कर बेक़रार
कहीं आकर
प्रिया जगाए।
रात सुनाए गीत गोरी भोर भये रस बरसाए।
अनमन सा मन 
उठा पलंग से
सारा घर
खुश दिखे
मैं दिखू अलग से।
किसी ने बोला
मन क्यों है बेज़ार।
और हँसकर
की ठिठोली
क्या है किसी का इंतज़ार।
लोगों की सुन
में रह गया
थोड़ा दुख
पी गया 
मैंने सोचा
किस किस को समझाए।
रात सुनाए गीत गोरी भोर भये रस बरसाए।
सूरज ने ली
अंगड़ाई।
जन डूबा रे
अपने काम कमाई।
गाँव की आली
मुझे देख अकेला
मन ही मन हरसाई।
क्या हुआ मधुर को
या कोई कर गया
रुषवाई।
मन ने सोचा
हँस लो 
मत देखों क्रषगात
अब प्रिया बिन
कोई न भाये।
रात सुनाए गीत गोरी भोर भये रस बरसाए।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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