घर का रास्ता - कविता - डॉ. अवधेश कुमार अवध

यह कविता अवध की लेखनी से जन सरोकार के महाकवि श्रद्धेय मंगलेश डबराल जी को विनम्र श्रद्धांजलि है।

जनकवि
मंगलेश डबराल
हिंदी के सहज सरल संवेदनशील 
सच्चे लाल
जलाकर "पहाड़ पर लालटेन"
अपने असली "घर का राश्ता" पकड़कर 
चले गए अकाल
"हम जो देखते हैं"
वही कहते हैं
वही लिखते हैं
वही छापते भी हैं
और सुनो न
"आवाज भी एक जगह है"
इसे उठाने और दबाने में ही तो
संविधान बन जाते हैं
संशोधन दर संशोधन होते हैं।

नए युग में 
बहुत कुछ बदल जाता है
नए युग में मित्र भी
"नए युग में शत्रु" भी
इतना ही नहीं
हमारी वर्णमाला में 
बहुतेरे वर्ण के मायने भी
नहीं बदले तो बस
काल के क्रूर नियम
और हिंदी के उन्नत भाल
श्रद्धेय मंगलेश डबराल।

डॉ. अवधेश कुमार "अवध" - गुवाहाटी (असम)

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