साल भर के अंतराल से फिर आ गई ,
कोरोना का कहर ले अमा की रात काली ।
कई घरों के चिराग बूझ गए इस दौर में ,
बोलो फिर कैसे मनेगी आज यह दिवाली ।
वेतन में कटौती पहले से ही हो रही ,
बोनस में भी होनी है कटौती राज वाली ।
घरवाली के गुल्लक में भी हो गयी सेंधमारी ,
बोलो फिर कैसे मनेगी आज यह दिवाली ।
मेहनतकश के दो वक़्त की जुगाड़ भी ,
छिन गई है, वह निवाले की थाली ।
महंगाई की मार ने भी कमर तोड़ डाली ,
बोलो फिर कैसे मनेगी आज यह दिवाली ।
बेरोजगारों के हाल बहुत नाजुक हो चुकें ,
वे जिंदगी जी रहे हैं बदत्तर हालात वाली ।
ना कोई आय उन्हें कहीं से मिलने वाली ,
बोलो फिर कैसे मनेगी आज यह दिवाली ।
राम राज की है थोथी कल्पना सारी ,
आज भी सीता की अग्नि-परीक्षा अज्ञात वाली ।
हर-पल शिकार की ताक में बैठा व्यभिचारी ,
बोलो फिर कैसे मनेगी आज यह दिवाली ।
ना कहीं है आज कोई खुशी का आलम ,
और ना बह रही है हवा खुशगवार वाली ।
ग़म और दुःख के आँसू बहाती आँखें सारी ,
बोलो फिर कैसे मनेगी आज यह दिवाली ।
कानाराम पारीक "कल्याण" - साँचौर, जालोर (राजस्थान)