वो बुढ़िया - कविता - सलिल सरोज

वो बुढ़िया कल भी अकेली थी,
वो बुढ़िया अब भी  अकेली है।

चेहरे की झुर्रियाँ पढ़ कर पता चलता है,
उसने कितने सदियों की पीड़ा झेली है।

पति छोड़ कर बुद्ध हो गया भरी जवानी में
आँसुओं की लरी ही केवल  एक सहेली है।

किस समाज ने किस यशोधरा को देवी माना है,
वही जानती है  कैसे  अपनी मर्यादा सम्हाली है।

इस टूटे और जर्जर पड़े घर के दायरे में
किस तरह से अपनी  बच्चियाँ  पाली  है।

कहते हैं अपनी शादी वाले  दिन को
उसका बदन चाँद-तारों की डाली थी।

हाथों में हीना की होली, आँखों में ख़ुशी की दीवाली,
अपने चेहरे पर उसने परियों सी घूँघट निकाली थी।

पूरा  शहर हो गया था दीवाना उस का
जो जीती जागती मुकम्मल कव्वाली थी।

कैसी खुश  थी, कैसे हँसती-खिलखिलाती थी
मानो कि उसके दामन में जन्नत की लाली थी।

अपना सब कुछ कर दिया समर्पण अपने देवता को
बन कर गुलाम,  खुद  ही अपनी लाश  उठा ली थी।

भगवान् पूजा जाने लगा और ग़ुलाम शोषित होने लगा,
औरतों की यह दशा भगवानों की देखी और भाली थी।

भगवान् मुक्त होता चला गया हर बंधन से
औरत खूँटे से बँधी हुई चहार - दिवाली थी।

मर्द का मन नहीं  रोक  सकी  उसकी कोमल  काया,
अपने भगवान् के लिए वो अब अमावस सी काली थी।

बारिश में टपकते हुए छत के साथ वो भी रोया करती है,
वो अब भी उतनी ही खाली है जितनी कल तक खाली थी।

कुछ बच्चियाँ मर गईं और कुछ छोड़ कर चली गईं,
इस सभ्य समाज के लिए कहते हैं  वो एक गाली है।

अपने भगवान् को ना छोड़ने की कसम खाई थी, सो
मौत के एवज में न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ टाली हैं।

सूखे होंठ, धँसी आँखें, बिखरे बाल, पिचके गाल,
सोलह की उम्र में ही लगती बुढ़ापे की घरवाली है।

वो बुढ़िया कल भी अकेली थी,
वो बुढ़िया अब भी  अकेली है।

सलिल सरोज - मुखर्जी नगर (नई दिल्ली)

Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos