समय नही है - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

इंसान का सोच
इतना ओछा हो गया है
और वेझिझक हो
भयभीत परिस्तिथि में
कनी काट कर आगे बढ़ जाता है
और सहज तरीके से कहने लगता है
यार समय नही है।
रोड पर कहराती
इंसानियत को
अनदेखी कर
आगे बढ़ जाता है
क्योकि समय नही है।
माँ बाप के
अरमानो का
गला घोट कर
कहता बेटा सॉरी डैडी
समय नही है।
ओ मेरे दोस्त
आयो मेरे पास
सुख दुख की बाते
करे और समस्याओं से
भरा जी हल्का करे
दोस्त तुम ठीक कहते हो
पर यार समय नही है।
पत्नी कहती पति से
आज तो संडे है?
ढेर सारी बाते करेंगे
बच्चों को कही 
घुमाने ले जाएंगे।
पर पति कहता
प्रिय फिर कभी
क्योंकि आज
समय नही है।
चूका किसान
समय का
नही ठिकाने लगता है
हाड़ तोड़ मेहनत करता
फिर भी भूखा भूखा
से लगता है
वो मिलन के मेले छोड़
बनावटी हंसी से कहता
भईया समय नही है।
अफसरों ने अधीनस्थ
कर्मी को इतना
बाँध रखा है कि वह
भी वेहिचक कहता है
समय नही है।
इस समय की उहा पोहने
रिस्तो को किया तार-तार
मिलने का अस्वासन देता वार - वार
क्योंकि समय नही है।
वेवसी ओर जरूरत ने किया
समय का अहार
और मानव और मानवता
का किया वांटा धार
दोस्तो अपने सोच को
अवरुद्ध मत करो
इंसान व इंसानीयत से
खूब प्रेम करो
दिल पर आघात
लग जाता है
जब आप कहते है कि अब
समय नही है।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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