अवसाद ग्रसित आहत बचपन - कविता - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

अवसाद ग्रसित  आहत बचपन,
आज़ाद   वतन   दुखार्त   रुदन।
रहती   सत्ता   सुखभोग  मगन,
जठरानल  जल   मर्माहत  तन।

पछताता शिशु  क्रन्दित शैशव,
यह विषम चित्र उन्मत्त विभव।
कैसी   उड़ान  है   नव  भारत,
जब दीन  हीन  बचपन आहत। 

दायित्व निर्वहण अबोध  वयस,
अनज़ान जगत जीवन अविरत।
खोल अवदशा पोल छवि चित्र,
निर्मम   कठोर  निर्दय   शासन। 

कैसा    विकास   उत्थान     राष्ट्र,
कहाँ   लोकतन्त्र  कहँ  है स्वराष्ट्र।
जहँ भूख प्यास छत बिन बचपन,
मँझधार सिन्धु  जन फँसा  भँवर।

अधिकार  बना  बचपन  अनाथ,
गत   गर्त  नैन  फ़ैल   रहा  हाथ।
नव आश मनसि  पेट पीठ साथ, 
बेदर्द  अधीश  जी   रहा    ठाठ। 

पशुश्रेष्ठ  आज  नर   दीन दुखी,
शिक्षा  वैभव  कहँ  मान  सुखी।
अरमान  कहाँ  नवमान  प्रगति,
विधिलेख शिशु दीनार्त नियति। 

आख़िर   कबतक  दुर्भाग्य दीन,
परपीड़   दलित अधिकार  हीन।
अवहेलित  नित  खोया  बचपन,
कब मिटे तिमिर जन अवसीदन।  

कब मिटे  निशा अरुणाभ भोर,
दुःखान्त  दीन  नव प्रगति  शोर।
निर्भेद    दीन   मुस्कान   अधर,
जाति धर्म विरत निर्माण सुखद। 

आधान   नया     हो   नवजीवन,
कल्याण    सर्वजन  मन  शासन।
हो नव समाज  सब जन शिक्षण,
गणतन्त्र सफल जब मंगल जन। 

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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