फौजी का निर्णय - कहानी - सतीश श्रीवास्तव

देश की सेना में सेवा करना सचमुच ही एक अद्भुत अनुभूति देता है, अपना तन-मन राष्ट्र के लिए होता है समर्पित और यह समर्पण का भाव देता है उन सैनिकों को सम्मान।
सम्पूर्ण राष्ट्र की सुरक्षा का जिम्मा होता है उनके कन्धों पर, कितना ही भार क्यों न हो किन्तु कभी उन कन्धों को झुकने नहीं देते।
पैरों को कभी रूकने नहीं देते आँखों के पलक भी नहीं झपकाते ड्यूटी के दौरान हमारे देश के जांबाज सिपाही।

उन्हीं सिपाहियों में से एक थे धर्मसिंह।
धर्मसिंह जब भी गाँव आते तो सारे गाँव के साथ साथ क्षेत्र के लोग भी उनसे मिलने और उनका हालचाल पूछने आया करते।
गाँव में उनके माता-पिता का देहांत हो चुका था। घर परिवार के नाम पर उनकी पत्नी और एक बेटा था। धर्मसिंह सेना में नौकरी करते और उनकी पत्नी करती बेटा की देखभाल तथा उसकी पढ़ाई की चिंता।
अपने बेटे के पालन-पोषण में मां पिता के कर्तव्यों का भी पूरी तरह निर्वहन कर रही थी, क्यों कि फौज के फौजी अपने घर परिवार के लिए पर्याप्त समय नहीं दे पाते।
साल में एकाध बार आना हो पाता था घर,उसी बीच घर की सारी व्यवस्थाएं देखते, खेती बाड़ी का इंतजाम, घर मकान की मरम्मत, बच्चे और पत्नी के कपड़ों की व्यवस्था, नातेदारी रिस्तेदारी निभाने का दायित्व पूरा करने में ही महीने भर की छुट्टियों का पता ही नहीं चलता था।
जब धर्मसिंह छुट्टियों के बाद बापिस जाते तो पूरे गाँव के लोग गाँव से दूर बस स्टैंड तक पूरे सम्मान से विदा करने जाते, उन्हें प्रोत्साहित करते और भावभीनी विदाई देते।
यह सब देखकर अक्सर उनकी आँखें नम हो जाती थी।
जाते समय पड़ौस में रहने वाली चाची उन्हें मंगल तिलक करती और कहती जाओ बेटा खूब सेवा करना भारत माता की।

समय बीतता चला गया और धर्मसिंह की सेवा निवृत्ति का समय आ गया, सेवा निवृत्त होकर गाँव आ गये धर्मसिंह।
कहते हैं जिंदगी में सारे सुख किसी को नहीं मिलते, कुछ ही दिनों के बाद उनकी पत्नी की अचानक तबीयत ख़राब हो गई उन्होंने इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी साथ में बेटा अंकुर भी भागमभाग करता रहा।
बेटा अंकुर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था।
विधाता को कुछ और ही मंजूर था अटैक आया और धर्मसिंह की पत्नी ने साथ छोड़ दिया और चली गई भगवान के घर।
कहते हैं कि जब खुशियों के पल आते हैं तो पता नहीं किसकी नजर लग जाती है।
बहुत ही दुःखी हुए धर्मसिंह।
विधि का विधान कौन टाल सकता है अंकुर के सिर से उठ गया था मां का हाथ और खो दिया धर्मसिंह ने अपना जीवन साथी।

कुछ दिनों बाद अंकुर चला गया अपनी पढ़ाई पूरी करने तो धर्मसिंह अकेले में खूब रोते और कहते - "सावित्री जब मैं ड्यूटी पर जाता था तो तुम कहा करती थी कि जल्दी आना और मैं  जल्दी आने का प्रयास भी करता था। आ भी जाता जल्दी किन्तु तुम तो इतनी दूर चली गई हो कि मेरे बुलाने की आवाज भी नहीं पहुंच पाती तुम तक।
कुछ दिनों और रूक जाती तो अंकुर की इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो जाती जिसके सपने तुम दिन रात देखा करती थीं"।

उनका मन घर की दीवारों को देख देख सावित्री को याद करता। यादें उन्हें खूब रुलाया करती, नींद नहीं आती रात रात भर।
उन्होंने मन बना लिया कि अब गाँव से शहर चले जाएंगे और तमाम उलझनों में फंसे धर्मसिंह ने गाँव की जमीन मकान बेचकर शहर में रहने की योजना बना डाली।
जमीन जायदाद से अच्छी खासी रकम मिली और नौकरी का भी अच्छा खासा फंड मिला था जिससे शहर में शानदार आलीशान मकान बना लिया।

मालनपुर में दो मंजिला मकान सामने बड़ा बगीचा, बगीचा के बगल में एक टीन सैड जिसमें गाय रखने की भी इच्छा।
मकान तैयार होने पर बढ़िया दो गाय भी खरीद लाए।
मकान के ऊपरी हिस्से में रहते थे धर्मसिंह, एक बड़े से हाल में उन्होंने सुख सुविधाओं के लिए सामान सजा लिया था।

पत्नी की मौत के बाद उनकी खुशी और चेहरे पर मुस्कान उस दिन देखी गई जब उन्हें अंकुर ने बताया - "पापा मेरी नौकरी लग गई है और पोस्टिंग भी मालनपुर में ही हो गई है"।
धर्मसिंह ने अंकुर को सीने से लगा लिया और दीवार पर टंगी तस्वीर ओर कहने लगे - "देख सावित्री आज तेरा सपना साकार हो गया है आज अंकुर की नौकरी लग गई है अब मैं कभी भी अकेला नहीं रहूंगा"।
बेटा की नौकरी क्या लगी, सगाई संबंधों की चर्चाएं होने लगी।
मिल भी गया मनचाहा परिवार और मनचाही बहू।

कुछ दिनों तक तो ठीक ठाक चला फिर बहू ने रंग दिखाना शुरू कर दिया।
एक दिन बहू ने बड़े ही सहज भाव से कहा था - "पापा जी आपको परेशानी होती होगी क्यों न आप नीचे वाली बैठक में सिफ्ट हो जाओ।
पिता जी ने भी बड़े ही सहज भाव से स्वीकार भी कर लिया और कहा - "बहुत ही ठीक बात है वैसे भी मेरे घुटनों में सीढ़ियों पर आने जाने में तकलीफ भी होती है"।
आ गया बिस्तर नीचे वाली बैठक में।

कुछ दिनों बाद फिर बहू ने कहा - "पापा जी आप बैठक में रहते हैं तो मेरी सहेलियों को दिक्कत होती है क्योंकि हम सब आपका बहुत सम्मान करते हैं अतः क्यों न आप बाहर बरामदे में अपने बिस्तर को लगवा लें"।
धर्मसिंह ने कहा - "बेटा यह तो तुमने मेरे मन की बात कही है बहुत ही बढ़िया रहेगा खुली हवा मिलेगी और बुढ़ापे में खुली हवा का एक अलग ही आनंद होता है। यहां बंद बंद से कमरे में वैसे भी बहुत घुटन होती है"।

बरामदे में कटती रही जिंदगी, फिर एक दिन बहू ने एक और नई चाल चली, बोली - "पापा जी हम लोगों को आपके ब्लड प्रेशर की बहुत ही चिंता रहती है मैंने अखबार में पढ़ा है कि अगर गाय के कन्धे और गर्दन को सहलाया जाय तो ब्लड प्रेशर सामान्य रहता है"।
धर्मसिंह ने भी कहा कि सही है मैंने भी सुना है।
बहू आगे बोली - "मैं कह रही थी कि गऊ सेवा का कार्य आप खुद संभाल लेते क्यों न आप टीन सैड में ही रहने लग जाओ, मैं आपका वहीं बिस्तर लगवाये देती हूँ"।
धर्मसिंह ने कहा - "बेटा तू मेरा कितना ख्याल रखती है कितनी चिंता करती है ईश्वर सबको ऐसी बहू दे"।
पहुंच गए पापा जी ऊपरी मंजिल से लुढ़कते लुढ़कते  गऊशाला में।

धर्मसिंह के बिस्तर के तीन तीन ट्रांसफर हो गये इतने ट्रांसफर तो उनकी नौकरी में भी नहीं हुए थे, इस बीच उन्होंने एक बात जरूर नोट की थी कि बिस्तर के तीन तीन ट्रांसफर होने के बाद भी अंकुर ने एक बार भी किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, इस बात का उन्हें बहुत ही दुख रहता।
उनके साथ उनकी पत्नी की तस्वीर भी आ गई थी गऊशाला में।
तस्वीर के सामने खड़े होकर रोने लगे - "सावित्री तुम ठीक चली गईं इस निर्मोही दुनिया से, देखो तो मुझे मेरे ही घर में  कहां से कहां लाकर पटक दिया"।
बड़ी देर तक बड़बड़ाते रहे और आँखों से टप टप आँसू टपकते रहे।

धर्मसिंह टीन सैड में बैठकर चाय पी रहे थे तभी अंकुर ने आकर उनके पैर छुए और बोला - "पापा जी मुझे कंपनी की ओर से एक प्रोजेक्ट मिला है और मुझे दो महीने के लिए अमेरिका जाने का अवसर मिला है अगर आप इजाजत दे दें तो आपकी बहू को भी साथ ले जाऊं"।
धर्मसिंह ने खुशी जाहिर की और कहा - "यह तो बहुत ही सुन्दर और शानदार अवसर है कितनी खुशी की बात है कि हमारे बेटा और बहू विदेश की सैर करेंगे --जाओ। ख़ुशी ख़ुशी जाओ"।

वह दिन भी आ गया जब बेटा और बहू  की फ्लाईट दिल्ली से रवाना होना थी। शताब्दी एक्सप्रेस से दिल्ली जाने की तैयारी हो गई, पिता जी से आशीर्वाद लेने आये और जाने लगे तो जाते जाते बहू ने कहा था - "पापा जी जब तक हम लोग लौटकर नहीं आते तब तक आप बैठक में अपना बिस्तर लगा लें क्योंकि घर की सुरक्षा भी तो जरूरी है"।
बेटा ने भी सुर में सुर मिलाते हुए कहा था - "हां पापा आप बैठक में ही लेटना आज से"।

बेटा बहू के विदेश जाने के बाद अगले ही दिन से धर्मसिंह ने पूरे मकान के ग्राहक देखना शुरू कर दिए।
बहुत ही धैर्य से काम लिया लेकिन धैर्य का बांध टूट ही गया था।
पत्नी की तस्वीर के सामने खड़े होकर बड़बड़ाते हुए अपनी व्यथा बताने लगे - "देखा सावित्री कैसा व्यवहार किया है मेरे साथ। मेरा घर, मेरा मकान, मेरी कमाई का सब कुछ, कितने कष्ट झेले, कितनी कठिनाइयों को सहन किया और जिनके लिए सब कुछ सहा वही कैसी ठोकरें मारकर कहां से कहां तक धकेलते रहे हैं, जैसे इनके ऊपर भार हो गया मैं।
अरे मैं तो फ़ौज में रहा हूँ। स्वाभिमान के साथ रहा हूँ, और आगे भी स्वाभिमान के साथ जीने की चाहत है मेरी। यह स्वाभिमान अपने ही घर में क्यों गवांऊ, मैं तो इनके व्यवहार की पराकाष्ठा देख रहा था, बच्चे समझने लगे हैं कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ, पता नहीं क्यों लोग भूल जाते हैं कि फौजी कभी बूढ़ा नहीं होता। जिनके लिए मैंने सब कुछ समर्पित कर दिया है वही मुझे कूड़ेदान का कचरा समझ रहे हैं"।

मकान का सौदा हो गया रजिस्ट्री हो गई, सुपुर्द भी कर दिया और पहुंच गए धर्मसिंह एक छोटे से फ्लैट में।

दो महीने की विदेश यात्रा के बाद अंकुर अपनी पत्नी के साथ घर पहुंचा, घंटी बजाई।
दरवाजा खुला और एक अजनबी व्यक्ति को देखकर पूछा - "आप कौन?"
दरवाजा खोलने वाले व्यक्ति ने कहा - "प्रश्न तो मुझे करना चाहिए कि आप कौन?"
अंकुर बोला - "अरे यह हमारा घर है और हमारे पिता जी कहां हैं?"
तुम्हारे पिता जी ने यह मकान हमें बेच दिया है और वह दूसरी जगह पहुंच गए हैं यह रहा उनका पता।

कार्ड देखकर अचंभित हो गया अंकुर।
जाओ जाओ अब क्या देख रहे हो।
अपना सामान उठाकर पुनः टैक्सी में रखा और बताने लगा पता टैक्सी वाले को।
अप्सरा अपार्टमेंट भी ब्लाक फ्लैट नं 103।
निर्धारित पते पर पहुंचा, घंटी बजाई।
सामने पिता जी खड़े थे दोनों ही इतने ज्यादा विचलित थे कि पिता जी के पैर छूना ही भूल गए।
पापा जी यह सब? अंकुर ने प्रश्न किया।
धर्मसिंह ने कहा - "बेटा मैं फौज में रहा हूँ, मैंने देश की सेना रहकर देश की सेवा की है अपना जीवन न्यौछावर किया है, जो पैसा मिलता था उससे तुम्हारा पालन-पोषण किया है तुम्हारे लिए मकान बनवाया मुझे अपने सिर पर रखकर थोड़ी ही जाना था।

फौज में रहकर एक बात हमेशा सिखाई जाती थी कि कभी भी गद्दारी करने वालों का साथ नहीं देना चाहिए।
और तुमने तो अपने पिता से ही गद्दारी कर दी।
"तुम तो कमाते खाते हो, नौकरी है कहीं भी जाकर अपनी व्यवस्था कर लो, और हां कभी भी कोई विशेष संकट आन पड़े तो मेरे दरवाजे खुले मिलेंगे।
अंकुर फिर अपने सामान को समेटने लगा। 

सतीश श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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