उलझन सी पीड़ा हूँ - कविता - मयंक कर्दम

मैं लाचारी सी आशा हूँ,
इन कट पुतली की भाषा हूँ।
अरब-खरब की अमृत सी, 
वेदों की परिभाषा हूँ,
काट-काटकर बेच दिया है, 
जिन विदेशों के अखबारों में, 
कभी गुरु था मूर्ख तुलसी,
वहाँ सस्कृति के, कई दरबारों में।
आज लिपट गई हूँ,
कई रिश्तों की साझेदारी में, 
उलझन सी पीड़ा हूँ,
इस जीवन के हिस्सेदारी में।
खुले थे अक्षर मेरे भी, 
जब शस्त्र चढ़ा सीने पर, 
हाथ कटा था, पैर कटा था, 
इस महज़ब की आज़ादी पर।
रोईं थी स्याही आँसू की किलकारी में, 
भिगा कोरा पन्ना मेरी ही लाचारी में।
उलझन सी पीड़ा हूँ,
इस जीवन के हिस्सेदारी में।
मिटा-मिटा सा था सवेरा, 
इन अनपढ़ की दिवारों में, 
खामोश था गगन, मूक था मयंक, 
शायद बिकाऊ थी इन सरकारी बाज़ारो में, 
विरता कब-तक दिखाती मै? 
मैं भी तो एक भाषा हूँ।
मज़ाक नहीं मैं भी तो एक आशा हूँ।
कलंक नहीं बस इतना कह दो, 
हिंदी से हि मेरा जहान है, 
शब्द हूँ, सब भाषा समान है, 
आवाज नहीं तो वेदना समझो, 
पुस्तक की बंद चारदिवारी में, 
उलझन सी पीड़ा हूँ, 
इस जीवन के हिस्सेदारी में।

मयंक कर्दम - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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