इक तेरे चेहरे के सिवाय, कुछ और भाता नहीं,
तेरा प्यारा सा मुखड़ा, मैं कहीं देख पाता नहीं!
तू समा चुकी है मेरी नस-नस में, प्राण बनकर,
प्रिय, मैं चाहकर भी तुझे, कभी भूल पाता नहीं!
क्यों, मैं पास रहकर भी तुमसे दूर हो जाता हूँ,
क्यों दिल मेरा, तुझे देखे बिना रह पाता नहीं!
झगड़कर भी आँखों में तेरी, वो प्यार दिखता है,
ज़माने में कहीं वो एतबार नज़र आता नहीं!
बस इक तेरी आवाज़ सुनकर पा लेता हूँ सुकूं,
सौ नग़मों में भी वो अहसास मिल पाता नहीं!
हाँ, मुरीद हूँ तेरा, आशिक़ तेरा हमसाया भी हूँ,
जानती है तू कि धोख़ा करना मुझे आता नहीं!
कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)