इश्क़ से इस्तीफा - कविता - मनोज यादव

पहली मर्तबा सरेबाजार देखा तुझे
तो सोच लिया,
यही एक काम जिंदगी भर करूँगा।
दुनियाबी सितम से बेपरवाह रहूंगा
और नही दूंगा इश्क़ से इस्तीफा।।

घर के दालान से स्कूल के मकान तक
खेत के ढलान से बनिए के दुकान तक।
तुमसे मिलने और हँसते हुए देखने के लिए चला हूँ
इतनी आसानी से कैसे दे दूं इश्क़ से इस्तीफा।।

गाँव मुझे आवारा घोषित करे या मुखिया की पाबन्दी थोपी जाय
या गाँव के सारे गुलाबो की जड़ खुदवा दी जाये।
मैं सोच चूका हूँ मैं नही झुकने वाला
और कतई नही दूंगा इश्क़ से इस्तीफा।।

चट्टी-चौराहो पर अक्सर पीटने की धमकियां मिलती है
और ढेर सारी सलाह भी, कि मिलना छोड़ दो उससे और दे दो इश्क़ से इस्तीफा।
ये रकीबो अब तो जान ले ही लो मेरी
क्योकि मैं मर जाऊंगा लेकिन कभी भी नही दूंगा इश्क़ से इस्तीफा।।

बूढ़ी पंचायत बुला लो या ताजे राते हिन्द की
सारी दफाये लगा लो 
या जिला बदर का आदेश मंगा लो।
ऐसे भी मैं वकील हूँ इश्क़ का, नही डरूंगा दफाओं से
और डर के तो कतई नही दूंगा इश्क़ से इस्तीफा।।


मनोज यादव - गढ़वाल, श्रीनगर (उत्तराखंड)

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