घर ! मुझे पहचानते हो - कविता - डॉ. कुमार विनोद

जीवन के आपाधापी में
शान्ति की तलाश में
इक्कीस दिनी शाश्वत् सत्य की खोज में
बाहर के अहर्निश शोर से अलग- थलग 
एकान्त में रहने को मन आतुर 
हो उठा 
एक और शान्ति निकेतन की तलाश में
चम्पई रंग के उस अदभूत पलाश को देखने लगा 
सोचा समुद्र की ओर 
चला जाय तफरीह के लिए
लेकिन
घोर गर्जना करता 
अट्टाहास करता 
उसने कहा - मूर्ख ! 
भग जाओ यहाँ से 
मैने जंगलों की ओर रुख किया 
कभी सन्यासी धूनी रमाते थे यहाँ
पर यहाँ भी
इंसानी मस्ती में बस्ती हो गया
भागा पहाड़ की ओर 
वहाँ भी .........
अन्ततः लौट आया
घर के सारे दरवाजे बंद क्रर दिये 
बुझा दी सारी बत्तियां 
नींद के बहाने 
काल कोठरी सदृश 
घर को ही क्वारेंटाइन बना डाला
जब सुबह उठा तो 
झरोखे से आत्मीय किरणें मुझे 
जगा रही थी
मुझे उत्तर मिल चुका था 
अब और भटकना नही पड़ेगा 
मिल गया चहारदीवारी वाला आत्मीय घर 
सुस्वाद व्यंजन 
माँ का ऑचल 
जिसे सेनेटाइज करने की 
कोई आवश्यकता नही 
सुधि लेने वाले 
टेलीफोनिक 
ह्वाट्स अप्स,
मुख पोथी वाले सम्बन्धों की
 आधुनिक उष्मा
मैने घर से पूद्दा  
ओ मेरे अपने घर 
मुझे पहचानते हो उसने तपाक से 
गले लगा लिया ...... कहा-
सिर्फ इक्कीस दिन के लिये नही
ये तुम्हारा ही घर है 
तुम्हारा अपना घर।

डॉ. कुमार विनोद - बांसडीह, बलिया (उत्तर प्रदेश)

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