आदमीयत - कविता - सुधीर कुमार रंजन

मैं आदमी हूँ,
मुझे आदमी ही रहने दो।
क्यों मुझे बांधना,
चाहते हो,
अपने जंजीरों में?
मत चस्पा करो,
अपनी पहचान,
मुझ पर,
तुम्हारी पहचान से,
मेरी आदमीयत को,
बहुत डर लगता है।
कहीं तुम मेरी,
आदमियतत को ,
अपने सांचे और,
खांचेे में डालकर,
मेरी आदमीयत,
मार ना डालो।
इसलिए तुम,
मुझसे दूर रहो,
तो बेहतर है।
क्योंकि तुम्हारी,
नापाक साजिशों से,
प्रकृति की संरचना,
आज़ बिखर चुकी है।
एक ही भूमि को,
टुकड़ों -टुकड़ों में,
बांटकर तुमने
सैकड़ों सुन्दर-सुन्दर,
नाम दे रखा है,
जो सब एक-दूसरे,
पर पहरेदारी के,
चक्कर में,
आदमीयत को रौंद,
राक्षसी ठहाका,
लगा रहा है,
जिसकी गूंज से,
आदमीयत,
दुबक कर,
कहीं छिपकने की,
फ़िराक़ में,
भागे-भागे,
संसार में फिर रही है।
लेकिन तुम्हारी,
सांचे- खांचे की टोली,
झंडा, डंडा और घंटा ले,
बहका रही है,
उकसा रही है,
लड़ा रही है,
आदमी को,
आदमीयत के खिलाफ।

सुधीर कुमार रंजन - देवघर (झाड़खंड)

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