मूक रिश्ता - लघुकथा - सुधीर श्रीवास्तव

अब जब भी वह दिखती है अनायास ही बीता समय चलचित्र की तरह घूम जाता है। अभी अधिक समय बीता भी नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो।

पिछले वर्ष 28 जुलाई 2019 को माँ के देह त्याग के दिन तक किसी गांव वाले की एक लगभग नव बुजुर्ग गाय रोज नियम से सुबह सुबह मेरे दरवाजे से गुजर कर भोजन की तलाश में निकलती थी। मेरा मोहल्ला चूंकि गांव से सटा है इसलिए इस तरह जानवरों का आना जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। कुछ पालतू कुछ आवारा पशुओं से हमारी गली हमेशा गुंजायमान रहती है। खैर....(उस गाय को इस घर से जोड़़ने में कड़ी बना हमारा भांजा जो बचपन में हमारे साथ था। वह दिन में कई बार जैसे उस गाय को देखता, बुलाता और रोटी देता। शायद इसीलिए उसे हमसे, हमारे घर से इतना नेह हो गया।)

वह गाय पुनः घूम फिर कर 1-1.5 घंटे बाद वापस आती थी। तब वह मेरे दरवाजे पर आती अगर दरवाजा अंदर से बंद नहीं है तो अपने सिर से दरवाजा ढकेल कर अगले पैर अंदर कर खड़ी जाती और कुछ देर कुछ पाने का इंतजार करती, थोड़ा विलम्ब या ध्यान न दे पाने की हालत में घुसती हुई कमरे से अंदर बरामदे तक भी बिना संकोच पहुंच जाती और खाने को मिल भी जाता तो भी वह बिना जाने के लिए कहे बिना हिलती तक नहीं थी और यदि दरवाजा अंदर से बंद है तो सिर से दस्तक देकर अपने होने का संकेत भी देती। बहुत बार सुबह इस चक्कर में रोटी लिए हुए जब दरवाजा खोला तो किसी व्यक्ति को पाकर शर्मिंदगी भी हुई।हालांकि हमें इससे कोई खास असुविधा भी नहीं थी शायद इसमें हमारा स्वार्थ भी था कि इसी बहाने गऊ माता के दर्शन, स्पर्श, नमन का मौका भी अनायास मिल जाता था। मेरी माँ अपनी आदत के अनुसार सोने खाने के समय के अलावा सामान्यतः बाहर वाले कमरे में दरवाजे के पास और सुबह शाम बाहर कुर्सी पर बैठती रहीं। वह गाय आती और माँ के मुँँह के पास मुँह करके चुपचाप खड़ी रहती। माँ उसका सिर सहलातीं तो वह बड़े शांत भाव से खड़ी रहती। कुछ पा जाती तो भी बिना दुबारा आने के लिए सुने बगैर हिलती भी नहीं थी। बहुत बार तो चुपचाप दरवाजे पर बैठकर आराम भी करती और अपनी इच्छा होने पर चली जाती। यह क्रम माँ की मृत्यु तक अनवरत लगभग 10-12 वर्षों से चल रहा था।

माँ की मृत्यु के बाद से उसका आना अनायास कम लगभग न के बराबर रह गया है। अब तो बुलाने पर भी जैसे आना नहीं चाहती। हाथ में खाने के लिए रोटी दिखाने पर भी जैसे उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था, जबकि पहले ऐसा नहीं था। अब तो वह दरवाजे से गुजरती है तो मन किया आ गई नहीं तो कोई बात नहीं, जैसे माँ के जाने के बाद वह इस घर से विमुख सी हो गई हो। उसके उदास चेहरे को देख कर महसूस होता है कि जैसे उसनें मेरी माँ नहीं अपने किसी आत्मीय को खो दिया हो।

बहरहाल आज एक साल बाद भी उस मूक गऊ माता के भावों को महसूस कर पाने का असफल क्रम जारी है।फिर ऐसा भी लगता है जैसे उसका मेरी माँ के साथ पूर्व जन्म का रिश्ता रहा है।

बस यहीं धरती का सबसे बुद्धिमान प्राणी अपने को असहाय पाता है। जैसे प्रकृति नें उसे नंगा कर दिया हो।
गऊ माता को नमन वंदन के साथ।


सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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