ग़म ए राहत - ग़ज़ल - महेश "अनजाना"

जनाब राहत इंदौरी को समर्पित ग़ज़ल
          
बहुत बार मौत को ललकारा है।
आज वही शख्स है जो हारा है।

कहते रहे ऐ! घर से न निकल,
निकलकर भी क्या उखाड़ा है।

गैर की महफ़िल में आ तो गए,
कैसे कहें कि तू जश्ने बहारा है।

जा रहे थे हम किसी की धुन में,
मुड़ गए जो किसी ने पुकारा है।

जिन्दगी की बेवफाई दर्द दे गई,
मौत का किसने क्या बिगाड़ा है।

जब तक है साँस खुश रहा कर,
'अनजाना' तो गम का मारा है।


महेश "अनजाना" - जमालपुर (बिहार)

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