जैसे महकता गुलाब लगता है!
और तेरा हँसकर मुँह छुपाना,
जैसे छलकता शबाब लगता है!
जैसे झरना पहाड़ से गिरता है,
जैसे कहकशां कोई मचलता है!
भीग जाती है शब में जब रात,
तेरे चेहरे से आँचल फिसलता है!
तू दुधिया चाँदनी सी चमकती है,
अँधेरा जब आसपास लगता है!
दौड़ जाती है बदन में बिजली सी,
जब भी तेरा अंग, मेरे अंग लगता है !
जाने क्यों आज दिल मेरा है बैठा,
उस पर तेरा चेहरा उदास लगता है!
कहाँ से लाऊं मैं वो तेरी सुंदर हँसी,
जिसके बिन दिन ख़राब लगता है!
आँखें तेरी प्यार का समन्दर सी,
होठों पे कोई जाम सा छलकता है!
हुस्न तेरा ढाता है फिर क़यामत,
जैसे कोई कहर बेहिसाब लगता है!
कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)