धन की है खूब माया - मुक्तक - बजरंगी लाल

कोई नहीं है अपना,
कोई नहीं पराया,
स्वारथ के इस जहां में-
दौलत से मोहमाया,रिश्ते 
हुए बजारू-
धन की है खूब माया,
बापू से पूछे बेटा-
तूने है क्या बनाया,
घर में हुए जो दाखिल-
बीवी ने भी सुनाया,
बोलो हे मेरे प्रियतम-
कितना तूने कमाया,
खर्चे लगी सुनाने-
चर्चे हमारे गायब
शादी की वो मुहब्बत-
हुयी है अब पराया,
बेटा कमाने वाला,
वालिद (पिता) से पूछता है,
तूने हमारी खातिर-
बोलो है क्या बनाया,
बेटे की बात सुनकर,
नैनों से अश्रु आया,
जिनकी खुशी कि खातिर,
रातों को सो ना पाया,
दिन भर किया मजूरी (मजदूरी),
खाने को नून (नमक रोटी) खाया? 
जीवन किया निछावर,
थी जिससे मोह-माया,
वो अपने पूछते हैं,
तेरा है क्या बनाया,
आयी ज़रा (बुढ़ापा) अवस्था 
इन्द्रिय ने साथ छोड़ा,
अपना जिन्हें था समझा,
उन सब ने मुख है मोड़ा,
जिनके लिए ही मैंने,
ईश्वर को था भुलाया,
वो आज इस व्यथा पर,
मेरा प्रेम है भुलाया,
कोई नहीं है अपना,
कोई नहीं पराया,

बजरंगी लाल - डीहपुर, दीदारगंज, आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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