श्रम ही ईश्वर है - कविता - सुधीर कुमार रंजन

हां, आज़ सबके  साथ,
मैंने  भी  जश्न  मनाए,
खुशियों  के  गीत गाए,
लड्डुओं के भोग लगाए,
मिट्टी के भी दीप जलाए,
पटाखे भी जमकर फोड़े,
जगमग करती थाली में,
कपूर की बाती से आरती, 
पूरी निष्ठा के साथ उतारी।

यह  सोच करके  की-
कल की सबेरा के साथ,
जब मैं अपने दिन की,
नई शुरुआत करूंगा,
मेरी जिन्दगी की सारी,
दुःख और पीड़ा प्रभु
हमारे सब हर लेंगे।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ-
सबेरा तो हुआ,
सूर्य की धूप भी निकली,
चिड़ियों की चहचहाट,
और जीव-जंतुओं के,
कोलाहल में, जिंदगी की,
नई दिन की, शुरुआत भी,
पर हमारी जिंदगी की,
दुःख और पीड़ा बढ़ती ही गई,
सूर्य की बढ़ती, तपती लौ की तरह।

हार-थक कर मैं,
अपने कर्मों पर लौटा,
मंदिर-मंदिर घंटा बजाने,
दीप जलाने, भोग लगाने,
आरती उतारने के बजाय,
अपने दोनों हाथों की,
श्रमशक्ति पर भरोसा जगाया।

बंजर  ज़मीन, ऊर्वरक  बनाया,
धरती खोदकर, पानी  निकाली,
खेतों में हरियाली, छाने के साथ,
जिंदगी में  भी,  हरियाली  आई,
भरपेट  खाना  भी  नसीब हुआ,
बाल  बच्चों के चेहऱे भी खिले,
लुगाई  भी  झूम  के नाचने लगी,
और  तब  दुःख  और  पीड़ा भी,
वर्तमान  से  भूतकाल होने लगी।

सुधीर कुमार रंजन - देवघर (झाड़खंड)

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