रक्षा की डोर - कविता - गौतम कुमार कुशवाहा

श्रावण मास के पूर्णिमा दिन, आता हैं रक्षाबंधन।
थाल सजाकर बहन लगती, प्यारे भाई को चंदन।।

गली-गली में सजी हुई है, राखी की नई दुकान।
बहन  के  हाँथों बनी हुई, भाई खाये पकवान।।

दिल के गहरे  दर्द  भी, वो कर लेते हैं सहन।
जिस भाई की होती है, एक प्यारी सी बहन।।

इंतिजार में बहनों की, कहीं हो ना जाये भोर।
कौन बाँधेगी मेरी कलाई, पर रक्षा की डोर।।

सुनी पड़ी कलाई जिनके, भाग्य भी उनके फूटे।
प्यार मिले ना रिश्तों में तो, रिश्ते अक्सर टूटे।।

जिसके पास जो चीज है होती कदर नही करते हैं।
जिनके ना होती है बहना, सावन  में  वो  रोते  हैं।। 

कोई बना लो भाई हमको, दे दो बहना का प्यार।
खुशियों  से  हम  भी मनाएँ, रक्षा का त्योहार।।

बहन चमकाती घर को ऐसे, जैसे चमके पेरिस लंदन।
थाल  सजाकर  बहन  लगती, प्यारे भाई को चंदन।
श्रावण  मास  के पूर्णिमा दिन, आता हैं रक्षाबंधन।।

गौतम कुमार कुशवाहा - मुंगेर (बिहार)

साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिये हर रोज साहित्य से जुड़ी Videos