उखाड़ देता हूँ मक़्क़ारी की ख़रपतवार ।
मैं कुचल देता हूँ हवशी ज़हरीले कीटाणु ,
हटा देता हूँ बदनियती के असंख्य जाले ।
मगर वो फिर पनपते हैं और सिर उठाते हैं,
हो जाते हैं व्याकुल मन की छाती पे सवार।
तब मन की अँधेरी गुफा में बैठे दो लोग..
एक निहायत ही शरीफ़, दूजा हरामख़ोर!
सबोरोज़ होती है इन दोनों में ख़ूनी जंग ?
और जिसे देखकर हो जाता हूँ मैं भी दंग !
संवेदनाओं की भींतों पर चलती हैं तलवारें,
मन के कुरुक्षेत्र में गूँजती हैं बस चित्कारें ।
और जब मुझे अमानुष होने का होता है भय,
तब कुटिल चाल चलकर होता है वो विजय।
जो सभ्य है शरीफ़ है, और थोड़ा सा बेईमान,
और वही बनकर उभरता है मुझमें इन्सान ।
कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)